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________________ 'वाह मित्र, वाह! तब तो बहुत प्रभाव पड़ेगा।' अग्निवैताल ने हंसते हुए कहा- 'राजकुमारी होती तो इस प्रभाव का कुछ परिणाम तो आता....।' 'कल से तो मुझे राजकुमारी के साथ ही रहना है।' 'मुझे?' 'तुम भी मेरे साथ अदृश्य रूप में रहना।' 'यदि मैं आपकी दासी बनकर रहूं तो....?' 'नहीं, मित्र! मुझे तुम्हें स्त्री वेश में नहीं लाना है। इस प्रकार मैं तुम्हारा गौरव खण्डित करना नहीं चाहता।' 'मित्र हो जाने के पश्चात् मान-अपमान या गौरव-अगौरव का प्रश्न ही नहीं उठता।' वैताल ने कहा। 'तुम अदृश्य ही रहना । यही उचित है। क्योंकि यदि तुम्हें कहीं जाना पड़े और दासी रूप में तुम्हें मेरे साथ न देखे तो किसी को शंका हो सकती है।' 'ठीक है- मुझे भट्टमात्र का भी सहयोग करना होगा।' 'हां, दोनों ओर सहयोग तो देना ही होगा।' विक्रम ने कहा। 'कोई बात नहीं। जैसी देवीजी की आज्ञा। किन्तु मित्र ! राजकुमारी को समझाने में अधिक दिन मत लगाना, क्योंकि तुम्हारा राजपाट....।' 'देखो वैताल! अभी तक तो हमें यहां आये आज तीसरा दिन है। केवल एक ही सप्ताह में हमें ज्ञात हो जाएगा कि तेल और तेल की धारा कैसो है?' 'ठीक है।' वैताल ने कहा। फिर विक्रमा स्नानगृह की ओर गई। रात के दूसरे प्रहर की दो घटिका के पश्चात् महाराजकुमार जितवाहन आ गए। उनके साथ महाबलाधिकृत नरेन्द्रदेव तथा अन्य चार-पांच व्यक्ति भी आए थे। __रूपमाला ने सबका भावभीना सत्कार किया और अपने प्रियतम की ओर देखती हुई वह सबको व्यवस्थित बिठाने लगी। विक्रमा ने वस्त्र-परिवर्तन किया। वह कोमलांगी और सुन्दर तो थी ही, वस्त्राभरणों से उसका रूप सहस्रगुणित हो गया था और वह तब मदभरी मृगनयनी जैसी लग रही थी। उनके नयनों में श्यामांजन की रेखा खचित कर रखी थी। ललाट पर सूर्य का तिलक किया-ओह ! कैसा रूप! उसका हृदय और मन पुरुष का था-केवल अभिनय और वेश नवयौवना नारी का था। उसने दर्पण में देखा। उसके मन में आया....ओह ! मैंने रूप में मुग्ध वीर विक्रमादित्य ८७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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