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'तुम्हारी बात सही है-उष्मा का आनन्द तो मुझे मिला ही था। उसने मुझे प्रेम भरा निमंत्रण भी दिया है।'
'मुझे समझ में नहीं आता कि आप स्त्रीवेश में रहकर राजकन्या को कैसे जीत सकेंगे?'
'मित्र! मैं पहला काम यह करूंगा कि उनके मन का द्वेष निकल जाए।' 'तब तो यह रामायण बहुत लम्बी चलेगी?' 'एकाध महीना तो लग ही जायेगा, तुम घबराए तो नहीं?'
'आज जब आप गाकर उठे थे, तब मैं राजकन्या के भण्डार में चला गया था। वहां अच्छी मिठाइयां मिल गई थीं।' कहकर वैताल हंस पड़ा।
विक्रम मौन रहा। वैताल अदृश्य हो गया।
राजकुमारी के विषय में विचार करते हुए विक्रमादित्य सो गए, किन्तु नींद कहां, केवल मृगनयनी ही दिखाई पड़ रही थी।
मनुष्य के नयनों में जब रूप का अंजन आंज दिया जाता है, तब उसके हृदय की धड़कनें तो बढ़ ही जाती हैं, साथ-साथ नींद और आराम भी हराम हो जाता है।
राजकुमारी के मन से पुरुष और विवाह की अरुचि कैसे समाप्त की जाए, यही सोचता हुआ विक्रम चिन्तामग्न हो गया।
उसने मन-ही-मन यह तय कर लिया कि राजकुमारी के समक्ष कामशास्त्र और नर-नारी के मिलन की आनन्ददायी कल्पना प्रस्तुत की जाए, जिससे कि उसके चित्त का द्वेषभाव जाता रहे।
अथवा.....? ___उत्तम पुरुषों के वृत्तान्त सुनाकर उसके मन में पुरुष के प्रति आकर्षण पैदा किया जाए। फिर भी यदि उसके मन में उमंग न उठे तो?
नहीं.....।
यह सुन्दरी है....सुरूप है....मृगनयनी है-इसके प्राणों में कला के लिए स्थान है-जहां कला होती है, वहां प्रेम रहता है।
प्रात:काल की झालर बज उठी। किन्तु विक्रम राजकुमारी के विचारों में खोया हुआ शय्या पर सो रहा था।
१७. विक्रमा का स्वागत मध्याह्न का समय । रूपमालाने राजकुमारी को कहलवाया कि आज रात्रि में अतिथियों के सम्मान में नृत्य-संगीत का एक प्रांजल कार्यक्रम मेरे भवन में रखा गया है, इसलिए मैं आज आपकी सन्निधि में आ नहीं सकूँगी। आप क्षमा करें।
वीर विक्रमादित्य ८३