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रही थीं
अग्निवैताल आकुल-व्याकुल हो रहा था। उसके मन में अनेक बातें घुल
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जब विक्रमादित्य शय्या पर बैठे, तब अग्निवैताल प्रकट होकर बोला
'महाराज !'
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'आओ, प्रिय मित्र ! क्या तुम मेरी एक बात नहीं मानोगे ?'
'कौन-सी बात ?'
'मैंने कितनी बार कहा है कि तुम मेरे मित्र हो, मुझे 'महाराज' मत कहा करो।'
अग्निवैताल हंस पड़ा । वह बोला- 'आगे से सावधान रहूंगा।' 'आज की अपनी योजना बहुत सफल रही।' विक्रम ने कहा।
वैताल बोला- ‘देखो मित्र ! मुझे इस प्रकार के कार्यों में आज भी रस नहीं है। तुमको स्त्रीवेश करना पड़ा, इस प्रकार जाना पड़ता है - और इसका परिणाम क्या आएगा ?'
'तुम शान्त रहो, वैताल ! तुमने पहला परिणाम तो जान ही लिया है ? राजकुमारी को हमें देखना था, आज उसको देख लिया।'
'कैसी लगी?'
'तुम्हें इसका जवाब मैं क्या दूं? निश्चित ही विधाता ने इसका निर्माण विशेष सामग्री से किया है - मनोहारी, मृगनयनी, नीलोत्पला ।'
बीच में ही अग्निवैताल बोल पड़ा - 'हां हां, इससे मैं कुछ भी नहीं समझ सकता- तुम्हारे नयन-मन में तो वह बस गई है न ?'
'हां, मित्र! उसको प्राप्त किए बिना मुझे चैन नहीं।'
'तो फिर इस प्रकार वेश बदलने की क्या जरूरत है? तुम कहो तो दो क्षणों में उसे अवंती में पहुंचा दूं।' अग्निवैताल ने कहा।
'नहीं, मित्र ! स्त्री को इस प्रकार जीतना केवल शिकारी या दुष्ट का काम होता है। मैं इसको हृदय से जीतना चाहता हूं।' विक्रम ने कहा ।
'क्या तात्पर्य ?’
'राजकुमारी के मन में जो पुरुष जाति के प्रति द्वेष है, मैं उसको नष्ट करना चाहता हूं। जिस मन में घृणा भरी पड़ी है, मैं वहां प्रेम का सागर लहराना चाहता हूं। क्या तुमने नहीं देखा - कल रात वह मेरे से किस प्रकार चिपट गई थी ?'
‘स्त्री स्त्री को छाती से लगाए, इसमें किसी उष्मा का अनुभव नहीं होता। यदि राजकुमारी को यह ज्ञात होता कि आप विक्रमा नहीं, विक्रम हो तो आपकी छाती में तलवार ही लगती।' अग्निवैताल ने कहा ।
८२ वीर विक्रमादित्य