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मालकोष पूरा हुआ तब विक्रम रूपी विक्रमा बोल पड़ी-'धन्य साधना! धन्य कण्ठ ? राजकुमारी जी! आपका यह गीत और राग की माधुरी मेरे हृदय में जीवन भर संचित रहेगी। मैं आज धन्य बन गई। मेरा यहां आना सफल रहा।'
राजकुमारी ने उत्तर में मात्र मुस्कराते हुए सिर नमाया।
विक्रमा द्वारा की गई राजकुमारी की प्रशंसा को सुनकर मंजरी देवी को बहुत हर्ष हुआ। जैसे माता अपनी बेटी की प्रशंसा सुनकर अत्यन्त उल्लसित होती है, वैसे ही मंजरी देवी भी अपनी शिष्या राजकुमारी की प्रशंसा सुनकर धन्य हो
गई। वह बोली- 'देवी विक्रमा! राजकुमारी का कण्ठ मधुर है, साधना भी कष्ट. साध्य है-परन्तु आप-जैसी सिद्धि इसे प्राप्त नहीं है।'
'आचार्याजी ! राजकुमारी को सिद्धि उपलब्ध क्यों नहीं है, इस प्रश्न का उत्तर मुझे मिल चुका है।'
मंजरी देवी बोली-'मुझे बताओ।'
'आज नहीं, फिर कभी बताऊंगी....' विक्रमा ने इस प्रकार एक जिज्ञासा की रेखा उभार दी।
राजकुमारी ने कहा- 'देवी! मेरी एक प्रार्थना स्वीकार करो तो....।' 'राजकुमारी जी! प्रार्थना नहीं, आपको आज्ञा देने का अधिकार है।' 'आप यहां कितने दिन तक रुकेंगी?'
'मैं तो लगभग एक सप्ताह और रुकुंगी-किन्तु मदन और कामकला के साथ आयी हूं, इसलिए जब वे दोनों बहनें जाएंगी, तब ही मेरा जाना होगा।'
'तो कल से आप मेरे भवन में ही रहें।' विक्रमा कुछ नहीं बोलीं, विचारमग्न हो गईं। 'आपको यहां कोई कठिनाई नहीं होने दूंगी।' राजकुमारी ने कहा।
विक्रमा बोली- 'राजकुमारी जी! मैं अभी रूपमाला की अतिथि हूं। यहां रुकने या न रुकने का प्रश्न मेरा नहीं, रूप का है।'
राजकुमारी ने रूपमाला की ओर देखा।।
रूपमाला बोली- 'आपकी भावना का मैं सत्कार करती हूं। कल नहीं, मैं दो दिन के पश्चात् देवी विक्रमा को यहां भेज दूंगी।'
रूपमाला की बात स्वीकार कर सभी विसर्जित हो गये।
अपने निवास पर आने के पश्चात् रूपमाला ने विक्रमा का हाथ पकड़कर कहा- 'देवी! आपकी संगीत-साधना देखकर मैं मंत्रमुग्ध बन गई हूं।'
'देखो रूप! तुम अवस्था में मेरे से बड़ी हो, इसलिए आपके सम्बोधन से मुझे मत पुकारना।'
८० वीर विक्रमादित्य