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'मालकोष'-कहकर राजकुमारी वाद्यमण्डली के सदस्यों के पास बिछी हुई जाजम पर बैठ गई। मालकोष की स्वरलहरियां वातावरण में थिरकने लगीं। विक्रमा ने देखा कि राजकुमारी का कंठ अत्यन्त मधुर और सुरीला है । मालकोष का आनन्ददायी स्वर पूरे खण्ड को नचाने लगा। वाद्यमण्डली के विविध वाद्यों की ध्वनि से वह और अधिक प्रभावक हो गया।
और राजकन्या ने मालकोष राग में गीयमान गीत की पहली पंक्ति का उच्चारण किया- 'प्रेमजाल अति विकट है, कंटकमय और क्रूर' ।
विक्रमा ये शब्द सुनकर चौंकी। उसने कहा-गीत में भी यही धुन है। क्या मिलन की मधुर माधुरी मर गई है ? क्या राजकुमारी को यह सत्य ज्ञात नहीं है कि प्रकृति और पुरुष के संयोग की सृष्टि ही अमर है? . .
राजकुमारी का गीत रंग बरसाने लगा और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि गीत के भाव राजकुमारी के नयन पर नाच रहे हैं- प्रेम एक महाजाल है-यह कांटों से भरा है और क्रूर है। जो प्रेमजाल में फंस जाता है, उसे निर्दयता का शिकार होना ही पड़ता है।
विक्रमा स्थिर दृष्टि से राजकुमारी को देखती रही-ऐसा देवदुर्लभ रूप! ऐसी मधुर और कोमल काया ! प्रेम, कला और यौवन की मदमस्ती से छलकती आंखें....! __ मालकोष का गीत आगे बढ़ा।
कोई कहता प्रेम फूल है, कोई कहता अमृत रूप है। न, न, न, यह मोहभ्रम है, घातक विष, अरूप।
ऐसा मधुर कण्ठ और ऐसा गीत!
मालकोष राग के अंग-अंग खिल उठे थे-वीणा की श्रुतियां भी सुकुमारी के स्वर-कल्लोल के समक्ष फीकी लग रही थीं।
ताल, लय, माधुर्य-सभी उचित थे। किन्तु प्रेम को विरूप मानने वाली सुकुमारी का हृदय पत्थर कैसे बन गया? अभी इसने पाणिग्रहण क्यों नहीं किया? क्या पूर्वभव की स्मृति मात्र से इसका हृदय इतना कठोर हो गया? विक्रमादित्य के मन में ये प्रश्न बार-बार उभर रहे थे और सुकुमारी को प्राप्त करने की तमन्ना तीव्र हो रही थी।
विधि की विडम्बना ! आज विक्रमादित्य स्त्रीवेश में विक्रमा बने हुए राजकुमारी के समक्ष हैं।
तीन घटिका पर्यन्त मालकोष का वातावरण थिरकता रहा।
वीर विक्रमादित्य७६