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________________ विक्रमा अर्धघटिका तक स्वरों के आरोह-अवरोह में लगी रही। उसने गाया- 'राधा की रात बनी रंगभरी' । और सभी ने आश्चर्य से देखा कि मृदंगों से ताल निकल रही है। कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि मृदंगवादन स्वत: नहीं हो रहा है। पर वास्तविकता यह थी कि एक अदृश्य देव उन पर ताल दे रहा था। विक्रमादित्य ने दिव्य गुटिका के प्रभाव से स्त्रीरूप धारण कर रखा था। उसका कंठ भी कोमल और मधुर हो गया था। विक्रमा गा रही थी- 'रंगभरी....उमंगभरी-राधा की रात बनी रंगभरी....' पटयोग राग अत्यन्त मधुर था-मृदंग पर उठने वाले ताल भी ठीक थेमंजरी देवी का चेहरा खिल उठा था। और राजकुमारी तो इतनी मुग्ध हो गई थी कि वह अपलक नयनों से विक्रमा को देख रही थी। उसके मन में यह विचार उठा कि ऐसी सुन्दर और सिद्ध-गायिका को अपने पास ही रखना चाहिए-पुन: अवंती नहीं जाने देना है। नर-नारी के मिलन की एक मस्तीभरी बहार वातावरण में व्याप्त हो रही थी। मृदंग पर ताल उठ रहे थे। विक्रमा उल्लासपूर्वक स्वरकल्लोल कर रही थी...... दो घटिका पर्यन्त 'पटयोग' की आराधना चलती रही। और गीत पूरा हुआ तब मृदंग से अंतिम ध्वनि निकली जिससे सूचनाकक्ष कंपित हो उठा। वहां उपस्थित सभी के हृदय झंकृत हो उठे। राजकुमारी इतनी प्रभावित हो गई थी कि वह अपने आसन से उठी और विक्रमा को उठाकर छाती से लगा लिया। राजकन्या के स्पर्श से विक्रमारूपी विक्रम का पुरुष हृदय झंकृत हो गया। अदृश्य वैताल अपने स्थान पर चला गया। सभी विक्रमा को धन्यवाद देने लगे। १६. मृगनयनी विक्रमा की पटयोग की योजना विशेष सफल रही। सभी ने संगीत की भूरिभूरि प्रशंसा की। ___मंजरी देवी ने राजकुमारी की ओर देखकर कहा- 'आप कौन-सा राग गायेंगी?' ७८ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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