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________________ रूपमाला ने अपनी दोनों बहनों और देवी विक्रमा का परिचय राजकुमारी को दिया। राजकन्या ने तीनों की ओर प्रसन्नता से देखा और मुस्करा दी। अदृश्य अग्निवैताल ने विक्रम के कंधे पर चुटकी तोड़ी। विक्रम कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थे, क्योंकि पास में रूपमाला बैठी थी। मंजरी देवी ने राजकन्या की ओर देखकर कहा-'आज अतिथियों के समक्ष आपको भी कुछ करना होगा।' राजकुमारी ने मंजरी की ओर दृष्टि कर कहा- 'मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करूंगी-किन्तु आज यदि हम अतिथियों की कला का ही रसास्वादन करें तो.....' 'आप अवश्य ही एकाध गीतिका के द्वारा अवंती की कलालक्ष्मियों का मन बहलाना।' 'अच्छा' कहकर राजकुमारी ने विक्रमा की ओर देखा । विक्रमा के नयन अत्यन्त तेजस्वी लग रहे थे। मंजरी देवी ने रूपमाला की ओर देखकर कहा- 'देवी ! पहले हम नृत्य का आनन्द लें-आपकी दोनों बहनें तैयार हैं न ?' 'हां, देवी!' वाद्यमंडली ने अपने-अपने वाद्यों को तैयार किया। मदनमाला और कामकला ने खड़े होकर राजकुमारी का अभिवादन किया। विशाल खंड के मध्य भाग में अत्यन्त चिकना गलीचा बिछा हुआ था। दोनों बहनों ने वाद्यमंडली की ओर देखा । मदनमाला ने 'कामोद' की स्वर लहरी छोड़ने के लिए कहा। तत्काल वाद्यों से 'तिलक कामोद' की स्वर लहरियां वातावरण में थिरकने लगीं। अवंती की प्रख्यात नर्तकियों ने 'विरहानंद' नाम का नृत्य प्रारम्भ किया। इस नृत्य में विरहव्यथा से पीड़ित एक नारी अपनी सखी के समक्ष हृदय के भाव प्रदर्शित करती है और सखी उसे समझाती है कि विरह की व्यथा के पीछे जो 'पिउ-मिलन' की आशा का आनन्द छिपा रहता है, वह कितना मधुर होता है। विरह उस आनन्द की पराकाष्ठा का अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व है । यह सारा भावाभिनय से समझाया जाता है और तब सखी आनन्द-विभोर हो जाती है। मदनमाला और कामकला ने इस नृत्य के माध्यम से अवंती के नृत्यरसिकों को मुग्ध बनाया था। वीर विक्रमादित्य ७५
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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