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________________ इतने में ही अग्निवैताल वहां प्रकट हुआ। विक्रमा ने कहा- 'मैं तो समझती थी कि तुम दोनों सो गए हो। भट्टमात्र कहां है?' 'वे तो घोर निद्रा में खर्राटे ले रहे हैं।' 'तुम भी जाओ और आराम करो-कल हमें राजकुमारी के यहां जाना है।' 'मैंने सारी बातें सुन ली थीं। मैं भी साथ ही चलूंगा।' 'किन्तु कोई पुरुष....' हंसते हुए अग्निवैताल ने कहा- 'महाराज! मैं अदृश्य रहकर ही आऊंगा। राजकुमारी को देखने के पश्चात् क्या करना है, इसका निर्णय करूंगा।' 'अच्छा ।' 'अब आप विश्राम करें। मैं नगरी का चक्कर लगाकर आता हूं'-कहकर अग्निवैताल हो गया। १५. पटयोग रूपमाला, मदनमाला, कामकला और विक्रमा-चारों उत्तम वस्त्रालंकारों से सज्जित होकर, छह दासियों को साथ ले, सुन्दर अश्वों वाले चार रथों में बैठकर जब राजकन्या के आवास पर पहुंचे, तब पश्चिम का आकाश केसर से भीग गया था। ऐसा लगता था, मानो निशारानी का स्वागत करने के लिए प्रकृति ने पलाश पुष्पों का गलीचा बिछा दिया हो। राजकुमारी की मुख्य दासी ने चारों कलानेत्रियों का भावभीना स्वागत किया और उनको एक विशाल कक्ष में बिठाया। रूपमाला की दासी वहीं बैठ गई। अग्निवैताल अदृश्य रूप से आ गया था-वह देवी विक्रमा के ठीक पीछे बैठ गया। विक्रमा ने उसे शांतभाव से बैठने रहने का आदेश पहले ही दे रखा था। यदि यह सूचना नहीं दी होती तो अग्निवैताल कुछ-न-कुछ कर बैठता। राजकुमारी की दो दासियां कलानेत्रियों को पानक से भरे स्वर्णपात्र देने लगीं। पानक का पान पूरा हो जाने पर मुखवास का थाल आया और मुख्य परिचारिका ने रूपमाला से कहा- 'देवी! राजकुमारी धर्माराधना में लगी हैं-अभी निवृत्त हो जाएंगी।' ___ रूपमाला बोली- 'माधवी बहन! हमारे लिए शीघ्रता करने की जरूरत नहीं है- राजकुमारी निश्चिन्तता से आएं- हम यहां आनन्द में बैठी हैं।' तभी राजकुमारी की वाद्यमंडली उस खंड में प्रविष्ट हुई। वीर विक्रमादित्य ७३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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