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रूपमाला कुछ निश्चिन्त होकर वहां से चली।
रात्रि का प्रारम्भ हो ही गया था। रूपमाला जब राजकुमारी के निवास में पहुंची तब उसका मन निश्चिन्त था। उसने प्रतीक्षारत राजकुमारी को नमन कर कहा- 'राजकुमारी की जय हो!'
'ओह ! रूप! आज इतना विलम्ब कैसे?'
'क्या करूं? अवंती की दो प्रख्यात नर्तकियां, जो मेरी छोटी बहिनें हैं, एक श्रेष्ठ गायिका के साथ मेरे भवन पर आयी हैं। उनके आतिथ्य में कुछ विलम्ब हो गया। मैं आपसे क्षमा चाहती हूं।'
'तुम्हारी दोनों बहनें अवंती में रहती हैं ?' 'हां, कुमारीजी।' 'नृत्य में निष्णात हैं?' 'अत्यन्त कुशल।' 'और गायिका कौन है?' 'देवी विक्रमा नाम वाली एक युवती गायिका है।'
'वाह ! कोई बात नहीं, भले ही तुम विलम्ब से यहां पहुंची। तुम्हें अपनी बहिनों और विक्रमा को यहां लाना होगा।'
'आप जिस दिन चाहेंगी, उसी दिन मैं उन तीनों को यहां उपस्थित कर दूंगी।'
'शुभ कार्य में विलम्ब कैसा? कल सायंकाल के समय तुम तीनों को यहां ले आना।'
'ठीक है, परन्तु....' 'परन्तु क्या?' 'गायिका के साथ मृदंगवादक पुरुष है?'
'उसको साथ में मत लाना- यहां उत्तम मृदंग-वादिका स्त्री तो है ही।'
'अच्छी बात है।'
'तब तो कल ही हम नृत्य और संगीत का आनन्द लेंगी-आज तुम जाओ और अपनी बहनों के साथ गपशप करो।'
रूपमाला ने प्रसन्नता से मस्तक नवाया।
फिर वह राजकन्या से आज्ञा लेकर अपने भवन की ओर चल पड़ी और जब-वह भवन में पहुंची तब सभी दास-दासियों को उसके शीघ्र आगमन पर आश्चर्य हुआ, क्योंकि प्रतिदिन वह रात्रि के दूसरे प्रहर के समाप्त होने पर ही घर पहुंचती थी।
वीर विक्रमादित्य ७१