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फिर पांचों व्यक्तियों ने प्रात: कर्म से निवृत्त होकर अपने-अपने अश्वों पर बैठकर वहां से प्रतिष्ठानपुर की ओर प्रस्थान कर दिया ।
तेजस्वी अश्वों के लिए पांच-छह कोस की मंजिल बहुत बड़ी नहीं होती । नगरी की गगनचुम्बी अट्टालिकाएं दूर से दीखने लगीं। विक्रमादित्य ने भट्टमात्र की ओर देखकर कहा- - 'नगरी आ गई.... हम कहां ठहरेंगे ?' 'हमको रूपमाला के भवन में ही ठहरना चाहिए... परन्तु हम सबसे पहले राजकन्या के पुरुषविहीन भवन का निरीक्षण तो कर लें ।'
मदनमाला बोली- 'कृपानाथ ! सबसे पहले हम बहन रूपमाला के घर पर ही चलें। वहां जाने पर आगे की विचारणा करेंगें'
अग्निवैताल सबसे आगे था। उसने अपना अश्व खड़ा कर लिया।
सभी निकट आए, तब वह बोला- 'महाराज ! नगरी आ गई है....वेशपरिवर्तन करना हो तो..... I'
‘मित्र! मेरा विचार हे कि देवी रूपमाला के भवन में पहुंचने से पूर्व हमें राजकुमारी के महल का निरीक्षण कर ही लेना चाहिए ।'
वैताल बोला- 'महाराज ! सामने देखें, हमें उस ओर जाना होगा। दक्षिण दिशा के अन्त में जो महल दिखाई देता है, उसी महल में राजकन्या रहती है। ' 'चलो, हम उसी ओर चलें, फिर नगर में प्रवेश करेंगे....' विक्रमादित्य ने कहा ।
और पांचों अश्व महाराज शालिवाहन की राजकन्या सुकुमारी के एकान्त भवन की ओर बढ़े ।
कुछ ही समय में पांचों अश्व महल के पिछले भाग में आ पहुंचे। राजमहल के चारों ओर एक सुन्दर उपवन था और उस उपवन को घेरे एक सुन्दर परकोटा था । स्थान-स्थान पर रक्षक तैनात थे।
पांचों प्रवासी इधर-उधर देखते हुए मुख्य द्वार की ओर अपने अश्वों को बढ़ाते हुए आगे बढ़े।
अग्निवैताल बोला- 'महाराज ! भीतर जाना हो तो हम जा सकते हैं।' 'कैसे ?'
'अश्वों द्वारा प्राचीर को लांघकर ।'
'अच्छा, समझ गया...नहीं-नहीं, हमें पहले सब कुछ जान लेना है,
समझ
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लेना है.....'
भट्टमात्र बोला- 'महाराज ! देखें ! मुख्य द्वार सामने दीख रहा है.... स्त्रीरक्षिकाएं भाला और तलवार लिये पहरा दे रही हैं।'
६६ वीर विक्रमादित्य