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'आप निश्चिन्त रहें, मैं समझा दूंगा...अभी आप विश्राम करें....प्रात:काल होने में अभी काफी समय है....तब तक मैं इस वनप्रदेश में घूम आऊं।' अग्निवैताल ने कहा।
'क्यों? क्या काम है?' 'आप तो जानते ही हैं कि मैं रात्रि में ही भोजन करता हूं।' 'ओह मित्र ! मुझे क्षमा करें। तुम्हारे भोजन की व्यवस्था....'
बीच में ही अग्निवैताल बोल उठा- 'आप मेरी चिन्ता न करें। यह वनप्रदेश बहुत सुन्दर और रमणीय है....मेरा भोजन मुझे प्राप्त हो जाएगा।'
यह कहकर अग्निवैताल तत्काल अदृश्य हो गया। विक्रमादित्य अपनी शय्या पर विश्राम करके लेट गए। पास में भट्टमात्र निश्चिन्त होकर सो रहा था....कुछ ही दूरी पर दोनों पुरुष-वेशधारिणी नर्तकियां गाढ़ी निद्रा में सो रही थीं।
प्रात:काल हुआ। पक्षीगण कलरव करने लगे।
विक्रमादित्य शय्या से उठे....अग्निवैताल अपनी शय्या पर बैठा था। उसने कहा- 'राजन्, आप आज्ञा दें तो अब मैं प्रस्थान करूं?'
'क्या यहां कोई जलाशय है?' 'हां, महाराज! पास में ही एक सरिता बह रही है।' अग्निवैताल ने कहा। 'तो हम प्रात:कर्म से निवृत्त हो जाएं....किन्तु भट्टमात्र और दोनों बहनें?'
'मैंने उन पर निद्रा का प्रयोग किया है...अभी उनको जागृत कर देता हूं।' कहकर अग्निवैताल ने उस ओर हाथ घुमाया।
निद्रा को अपनी ओर खींचते ही तीनों जाग गए। अपने सामने अपरिचित वनप्रदेश देखकर तीनों आंखों को मलने लगे। उन्हें लगा कि किसी ने अपहरण कर लिया है। वे इधर-उधर देखने लगे। अग्निवैताल ने कहा- 'चौंकने की आवश्यकता नहीं है। एक योगी की उपलब्धि से हम सब प्रतिष्ठानपुर के परिसर में आ पहुंचे हैं।'
__'क्या कहा आपने? प्रतिष्ठानपुर के परिसर में? केवल एक ही रात में?' मदनमाला ने आश्चर्य के साथ प्रश्न किया।
विक्रमादित्य बोले- 'हां, बहन ! योगजशक्ति कल्पनातीत होती है.... निमिषमात्र में वे कहीं से कहीं पहुंचा देते हैं।'
भट्टमात्र समझ गया था कि यह सारी शक्ति अग्निवैताल की है। वह हंसा और अग्निवैताल की ओर देखता रहा।
वीर विक्रमादित्य ६५