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'तो फिर ?'
'यह मेरा प्रश्न है । आप तो मेरे लिए इतनी जोखिम उठा रहे हैं और मुझे अटूट विश्वास है कि आप अपने इस कार्य से यशस्वी होंगे' - कमला ने प्रसन्नता से कहा ।
इस प्रकार प्रिया की प्रेरणा लेकर ही विक्रमादित्य वहां से चले ।
तीन दिन तक पांच प्रवास करते रहे, परन्तु मालव देश की सीमा को भी पार नहीं कर पाए। अग्निवैताल बोला- 'महाराज ! इस प्रकार चलने से तो हमें एक महीना लग जाएगा ।'
'हमारे सेनापति तो तुम ही हो। तुम्हें जो उचित लगे वैसा करो।' विक्रम ने हंसते हुए कहा ।
'तो मैं आप सबको आज ही प्रतिष्ठानपुर से पांच कोस की दूरी पर स्थित एक गांव में पहुंचा दूं! ́ अग्निवैताल ने कहा ।
'जैसी तुम्हारी इच्छा..... परन्तु दोनों नर्तकियां चमकेंगी तो नहीं ?' 'नहीं, महाराज ! नहीं ! मैं सब कुछ ठीक कर दूंगा।'
और ऐसा ही घटित हुआ ।
रात्रि में जहां पड़ाव था, वहां जब सभी निद्राधीन हो गए तब अग्निवैताल ने अपने प्रभाव से सबको उसी स्थिति में प्रतिष्ठानपुर के पास में स्थित एक उपवन में अश्वों सहित पहुंचा दिया |
अग्निवैताल ने दोनों नर्तकियों और महामन्त्री पर निद्रा की गाढ़ता का प्रयोग किया था और महाराज विक्रमादित्य को मूल स्थिति में ही रहने दिया था।
उपवन में पहुंचने के पश्चात् अश्व इस चमत्कारिक प्रवास से चौंके और हिनहिनाने लगे.....क्योंकि कुछ ही समय पूर्व वे एक छोटी-सी घुड़शाला में थे और अब एक सुन्दर उपवन में आ गए थे।
घोड़ों की हिनहिनाहट से विक्रमादित्य जाग गए। आंखें खोलकर देखा तो कमरे के स्थान पर एक सुन्दर वन- प्रदेश था। वे शय्या से उठे । अग्निवैताल पास में आकर बोला – 'आपकी आज्ञा के अनुसार हम प्रतिष्ठानपुर के परिसर में आ गए हैं । '
विक्रमादित्य ने अग्निवैताल के दोनों हाथ पकड़ते हुए कहा - 'मित्र ! तुम्हारी शक्ति बेजोड़ है....वास्तव में मेरे पुण्य प्रभाव से ही तुम्हारे जैसा महान् मित्र प्राप्त हुआ है... किन्तु जब ये दोनों नर्तकियां जागृत होंगी, तब इनके आश्चर्य से कोई विपरीत असर तो नहीं होगा ?'
६४ वीर विक्रमादित्य