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________________ 'ये दोनों बहनें हमारे साथ चल सकेंगी?' 'दोनों आने के लिए उत्सुक हैं। मालवनाथ की इच्छा को पूरा करना कौन नहीं चाहेगा?' भट्टमात्र ने कहा। 'अच्छा, तो हमें एक-दो दिन में ही यहां से प्रस्थान कर देना है।' 'एक-दो दिन में प्रवास कैसे किया जा सकेगा? दोनों नर्तकियों को भी तैयारी तो करनी ही पड़ेगी। दूसरी बात है कि हमें वहां पहुंचने में एक महीना तो लग ही जाएगा।' ___'पहुंचने में महीना नहीं लगेगा। मेरा मित्र अग्निवैताल साथ ही चलेगा। तुमको भी साथ ही रहना है....दूसरे कोई भी दास-दासी साथ नहीं रहेंगे। तुम दोनों नर्तकियों को कहलवा देना कि आज से तीसरे दिन यहां से प्रस्थान करना है....दोनों पुरुष-वेश में चलेंगी-दूसरे सारे साधन वहीं मिल जाएंगे।' भट्टमात्र अवाक् रह गया। वह विक्रमादित्य की ओर दो क्षण देखता हुआ बोला- 'कृपानाथ! सशस्त्र रक्षकों के बिना प्रवास करना होगा?' 'भट्टमात्र! मेरे पास जो तलवार है, वह केवल शोभा के लिए नहीं है और अवंती के बाहर निकलने के पश्चात् हम सब समान हैं....तुम अपनी माला साथ में रखना।' कहकर विक्रमादित्य मुस्कराए। भट्टमात्र ने भी मुस्कराते हुए कहा- 'आपका मृगचर्म भी....' 'अच्छा, तो तुम्हारे साथ मैं अवधूत बनकर चलूं?' दोनों मित्र हंस पड़े। दूसरे दिन महाराज विक्रमादित्य ने मन्त्री बुद्धिसागर को बुलाकर राज्यसंचालन का सारा दायित्व उन्हें सौंप दिया। पांच सभ्यों की एक व्यवस्था समिति बना दी और उसके प्रमुख रूप में नगरसेठ को रखा। परन्तु तीसरे दिन भी वे प्रस्थान नहीं कर सके....राजपुरोहित ने मृगसिर शुक्ला अष्टमी का मुहूर्त दिया था... विक्रमादित्य ने अग्निवैताल को याद किया और वह तत्काल वहां उपस्थित हो गया। सूर्योदय के तीन घटिका पश्चात् विक्रमादित्य, अग्निवैताल, भट्टमात्र, मदनमाला और कामकला-पांचों ने उत्तम अश्वों पर बैठकर वहां से प्रस्थान कर दिया। प्रस्थान करने से पूर्व विक्रमादित्य ने महारानी कमलावती से कहा-'प्रिये! तुम्हारी प्रेरणा नहीं होती तो मैं इस परोपकार के लिए साहस नहीं करता।' रानी ने कहा- 'स्वामिन् ! यह प्रश्न आपका नहीं है।' वीर विक्रमादित्य ६३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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