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भट्टमात्र ने कहा - 'महाराज ! इस कलिकाल में पुण्ययोग के बिना देव-दर्शन
नहीं होते । '
'ठीक बात है । किन्तु देव ने जिस कार्य की प्रेरणा दी है, वह बहुत विचित्र है और जोखिमभरा भी है।' विक्रमादित्य बोले ।
तत्काल कमलावती बोल पड़ी - 'स्वामिन् ! गम्भीर और जोखिमभरा कार्य क्षत्रियकुमार ही कर सकते हैं। क्या आपको भय है कि राजकन्या आपके प्राण ले लेगी ?'
'नहीं, प्रिये ! ऐसा कोई भय मुझे नहीं है। किन्तु तुम्हारे जैसी प्रिय पत्नी की मर्यादा को मैं विस्मृत कैसे कर सकता हूं!'
'मैं समझी नहीं ।' समझ लेने पर भी कमलावती ने तिरछी दृष्टि से पति की ओर देखते हुए कहा ।
'कमला ! तेरे में मैं परम सुख का अनुभव करता हूं, फिर......
बीच में ही कमलावती ने कहा - 'स्वामिन्, सुख - दुःख मन की कल्पनामात्र है। मुझे सौत का कोई भय नहीं है, रोष नहीं है। यदि ऐसी नरद्वेषिणी स्त्री को मार्ग पर लाया जाए, तो यह परोपकार का कार्य होगा और आप तो मालव देश के अधिपति हैं। यदि आप ऐसा परोपकार नहीं कर सकते, तो फिर दूसरा कौन कर सकेगा ? देवकीर्ति ने आपको ही इस कार्य की प्रेरणा क्यों दी? आप मेरी ओर से पूर्ण निश्चिन्त होकर यह कार्य करें। इसमें आपकी और मेरी - दोनों की शोभा है । ' 'कमला....'
'स्वामिन्! मैं सच कह रही हूं। यह तो केवल एक नारी के उद्धार का प्रश्न है..... आप यदि सैकड़ों स्त्रियां ले आएं, तो भी मेरे मन में अन्यथा भाव नहीं आएगा....'
विक्रमादित्य ने अपनी पत्नी के दोनों हाथ पकड़ लिये और आंखों में आंखें डालकर देखने लगे। फिर भट्टमात्र की ओर दृष्टि कर कहा - 'मित्र! आपने सारा वृत्तान्त जान लिया है। इस विषय में हमें क्या करना है, सोच-विचार कर आप मुझे सूचित करें ।'
'महाराज की जय हो !' भट्टमात्र ने प्रसन्न स्वर से कहा ।
१३. प्रतिष्ठानपुर की ओर
तीन दिन बीत गए ।
इन तीन दिनों तक वीर विक्रमादित्य के मन में राजकन्या सुकुमारी का चित्र नाचता रहा ।
वीर विक्रमादित्य ६१