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देवकीर्ति ने महाराजा के हाथ से थाल लेकर एक ओर रखते हुए कहा'राजन् ! मैं धन्य हुआ । आपकी भावना देखकर मुझे अपना असली स्वरूप प्रकट करना पड़ रहा है....' यह कहकर उसने अपनी आंख मूंद ली।
कुछ ही क्षणों के पश्चात् सबने आश्चर्यभरी दृष्टि से देखा कि चारण देवकीर्ति का स्वरूप परिवर्तित हो गया है। उसके शरीर पर अति मूल्यवान् आभूषण चमकने लगे। उसके सिर पर धारण किये हुए मुकुट से तेजस्वी किरणें निकल रही थीं। उसका जो रूप था, वह सहस्रगुणित हो गया था।
देवकीर्ति का यह रूप देखकर विक्रमादित्य और महारानी कमला अपने आसन से उठ खड़े हुए।
देवकीर्ति ने प्रसन्न स्वरों में कहा - 'राजन् ! मैं मानवी नहीं, देव हूं... नंदीश्वर द्वीप की यात्रा पर निकला था। वहां से लौटते समय यहां के पवित्र तीर्थों की यात्रा करता हुआ प्रतिष्ठानपुर पहुंचा और वहां राजकन्या का वृत्तांत जाना....फिर वहां घूम-घूमता मैं यहां आया और आपमें मैंने साहस, वीरत्व और सौभाग्य के चिह्न देखे-इसलिए मैंने चारण वेश बनाकर यह वृत्तांत आपको सुनाया। मैं देव होने के कारण मनुष्य जाति का आहार ग्रहण नहीं कर सकता, इसीलिए मैंने भोजन करना स्वीकार नहीं किया । राजन् ! मैं आपके विनय-व्यवहार से मुग्ध बना हूं, प्रसन्न हुआ हूं- जो चाहो सो वरदान मांग लो।'
विक्रमादित्य बोले- 'आपकी प्रसन्नता ही मेरे लिए सबसे बड़ा वरदान है । मुझे और कुछ नहीं चाहिए । '
देवकीर्ति ने तत्काल उस खंड के कोने की ओर अपना बायां हाथ लंबाते हुए कहा- 'राजन् ! आपके हाथ से अनेक शुभ कार्य संपादित होंगे-उन कार्यों में यह सहायभूत बनेगा ।'
सभी ने उस ओर देखा तो प्रतीत हुआ कि खंड का आधा भाग स्वर्ण भर गया है।
देवकीर्ति ने विक्रमादित्य को एक चमत्कारी गुटिका देते हुए कहा - 'राजन् ! मैं जानता हूं कि आप किसी का दिया हुआ कुछ भी नहीं लेते। यह मनोवृत्ति बहुत उत्तम है। मैं यह रूप-परावर्तिनी गुटिका आपको देता हूं। इस गुटिका को मुंह में रखने से आप जिस रूप की कल्पना करेंगे, वैसा रूप परिवर्तन कर सकेंगे ।'
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इतना कहकर वह अदृश्य हो गया । राजा-रानी - दोनों अवाक् रह गए ।
इतने में ही महामंत्री भट्टमात्र वहां आ पहुंचे। विक्रमादित्य ने उनको सारा
वृत्तान्त कह सुनाया ।
६० वीर विक्रमादित्य