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आप उस राजकन्या को वश में कर पुरुष जाति पर उपकार कर सकते हैं। कृपानाथ ! पूर्व-जन्म की स्मृति के कारण ही उसके मन में यह विपरीतता आयी है। जब आप उसका चित्रांकन देखेंगे, तब आपको ज्ञात होगा कि संसार में ऐसी सुन्दर कन्या भाग्य से ही प्राप्त होती है....' कहते हुए देवकीर्ति ने श्वेत वस्त्र से ढंका हुआ चित्र विक्रमादित्य को दिखाया ।
चित्र को देखकर विक्रमादित्य के मुंह से निकल पड़ा - 'वाह ! '
कुछ क्षण चित्रांकन देखने में बीत गए। महादेवी कमला ने कहा - ' चारणदेव ! ऐसे सौन्दर्य का वर्णन किसी से नहीं हो सकता ।'
विक्रमादित्य ने प्रेमभरी दृष्टि से कमलावती की ओर देखकर कहा'निश्चित ही राजकन्या अत्यन्त सुन्दर है.... जब एक स्त्री किसी दूसरी स्त्री में मुग्ध हो जाती है, तब उसके रूप में कोई दोष नहीं बताया जा सकता।' कहकर विक्रमादित्य ने चित्र कमला के हाथ में थमाकर चारणदेव से कहा- 'अब आप यहां कुछ दिन ठहरें। आज आपका उपवास है, इसलिए आतिथ्य का हमें अवसर ही नहीं मिला। फिर मैं इस चित्र को देखकर जो निर्णय लूंगा, वह आपको ज्ञात हो जायेगा। यह चित्र मेरे पास रहे, तो आपको कोई आपत्ति तो नहीं है ? '
'यह चित्र आप रखें.... आप पुरुष जाति का कल्याण करें....महाराज ! मैं और अधिक नहीं ठहर सकता, मुझे आज ही लौट जाना है।'
'यहां आपको कोई कष्ट......
'
'क्षमा करें राजन्, यदि मैं ठहर सकता, तो आग्रह नहीं कराता ।'
विक्रमादित्य ने बाहर खड़े महाप्रतिहार अजयसेन को तत्काल बुला भेजा
और उसके कान में कुछ कहा ।
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देवकीर्ति सब कुछ समझ गया। उसके मुंह पर मुस्कराहट छा गई।
अजयसेन तत्काल खंड से बाहर आ गया ।
महारानी कमलावती ने भी रुकने का आग्रह किया ।
इतने में ही अजयसेन एक थाल लेकर आ पहुंचा। उस थाल में स्वर्ण मुद्राएं, रत्नजटित स्वर्णाभरण और एक कश्मीरी दुपट्टा था। महाप्रतिहार थाल लेकर महाराज के पास खड़ा रहा।
महाराज विक्रमादित्य महाप्रतिहार के हाथ से थाल लेकर चारणदेव के पास जाकर बोले- ‘चारणदेव ! आपके न रुकने का कारण मैं समझ नहीं सका.....मैं अधिक आग्रह कर आपको कष्ट देना नहीं चाहता। आप जब चाहें तब जा सकते हैं। केवल यह भेंट आप स्वीकार करें ।'
वीर विक्रमादित्य ५६