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तत्पश्चात् महात्मा भर्तृहरि ने विक्रमादित्य की ओर मुड़कर कहा-'राजन्! तुम्हारी सहधर्मिणी साक्षात् सरस्वती है- मेरे मन का अंधकार उसके एक प्रश्न से दूर हो गया।'
वह प्रश्न क्या था, विक्रम को जानने की इच्छा हुई, पर वे कुछ बोले नहीं। फिर महात्मा भर्तृहरि ने धर्मोपदेश दिया।
उपदेश सुनकर सबका मन अत्यन्त प्रसन्न हुआ। महामंत्री भट्टमात्र ने कहा- 'भंते ! आप कुछ दिन राजभवन में रहें तो....
बीच में ही राजर्षि ने कहा- 'राजभवन या तपोवन-आज से मेरे लिए दोनों समान हैं। किन्तु व्यवहार दृष्टि की उपेक्षा करने से भविष्य में होने वाले साधु-संतों के मार्गच्युत होने का निमित्त उपस्थित होता है, इसलिए आप किसी भी प्रकार का आग्रह न करें।'
ऐसा ही हुआ।
थोड़े समय पश्चात् महात्मा भर्तृहरि रानी कमलावती के हाथों से माधुकरी प्राप्त कर नीचे उतरे। नीचे हजारों नर-नारी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। महात्मा भर्तृहरि ने सबको धर्म में दृढ़ रहने और सदाचारी जीवन जीने का उपदेश दिया।
फिर वे उद्यान की ओर चल पड़े।
संध्या के समय राजपरिवार के साथ महाराजा विक्रमादित्य उद्यान में गए और कुछ समय तकं महात्मा के चरणों में बैठकर लौट आए। ,
प्रात:स्नान आदि से निवृत्त होकर महाराज दुग्धपान करने बैठे थे...वहां एक दूत ने आकर कहा- 'कृपावतार! आज प्रात:काल से पूर्व ही महात्मा भर्तृहरि यहां से विहार कर गए हैं।'
'आज ही विहार कर गए?' विक्रमादित्य को आश्चर्य हुआ।
विक्रमादित्य ने उनकी खबर प्राप्त करने के लिए चारों ओर सुभटों को भेजा....पर सब खाली हाथ लौट आए।
और एक दिन राजसभा में भारी चमत्कार घटित हुआ। एक सुन्दर, चतुर और प्रभावशाली परदेशी चारण महासभा में आ पहुंचा था।
जब राजसभा के मुख्य दंडक ने शिकायत करने वाले को खड़े होकर शिकायत करने के लिए कहा, तब वह चारण खड़ा हो गया। सारी सभा उस सुन्दर चारण को निहारने लगी।
_महाराज विक्रमादित्य भी उस चारण की ओर देखने लगे। ऐसा तेजस्वी रूप भाग्य से ही देखने के लिए मिलता है। सुरूप, स्वस्थ और सुदृढ़ पुरुष को देखकर कोई भी स्त्री उसके प्रति आकृष्ट हो, यह स्वाभाविक है, पर उस चारण को देखकर राजसभा में बैठे हुए सभी व्यक्ति स्तब्ध-से हो गए थे।
वीर विक्रमादित्य ५५