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कि इस भवन के साथ कभी कोई संबंध रहा ही न हो, ऐसे निर्विकार भाव से वे खंड में नीचे मृगचर्म बिछाकर बैठ गए।
महारानी कमलावती कुछ ही समय में वस्त्र धारण कर उस खंड में आ पहंची और राजर्षि को नमस्कार कर बोलीं- 'भगवन् ! भोजन का थाल तैयार करने की आज्ञा करूं?'
'नहीं, मां ! मैं अपने ही पात्र में आहार ग्रहण करूंगा, परन्तु पहले आप अपना प्रश्न....।'
'हां, परन्तु उस प्रश्न से आपको दु:ख होगा।'
'माता! साधुको सुख-दु:ख की चिन्ता नहीं होती-आप संकोच को त्याग कर कहें।'
'भगवन् ! आपने स्त्री को स्त्री रूप में क्यों देखा? मुनि को जैसे स्वर्ण और माटी में कोई फर्क नजर नहीं आता, उसी प्रकार जिस किसी वेश या रूप में खड़ी हुई स्त्री में भेद क्यों होता है ?' कमलावती ने कहा।
___महारानी कमलावती का यह प्रश्न सुनकर महात्मा भर्तृहरि चौंके-उनकी आंखों में प्रकाश की एक रेखा खचित हुई-वे अत्यन्त प्रसन्नदृष्टि से कमलावती की ओर देखने लगे। वे प्रश्न का कुछ उत्तर दें, उससे पूर्व ही जनता को समझाबुझाकर महाराजा विक्रमादित्य, मंत्री वर्ग, महाप्रतिहार आदि महात्मा को ढूंढतेढूंढते आ पहुंचे।
सभी के आ जाने पर भी रानी कमलावती उसी भाव से वहीं बैठी रहीं। विक्रमादित्य तथा सभी ने महात्मा भर्तृहरि को साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया। महात्मा ने सबकी ओर प्रेमभरी दृष्टि से देखा।
सभी भूमि पर ही बैठ गए। राजर्षि ने कमलावती की ओर नजर घुमाकर कहा-'आज तुमने मेरे मन के कोने में छिपे पड़े अज्ञान को दूर किया है। मन का अंधकार मनुष्य के मंगलमय मार्ग में रोड़ा अटकाता रहा है-बाह्य दृष्टि से पालन किया जाने वाला आचार मात्र व्यवहार दृष्टि से उपकारी होता है और अज्ञानी जीव लड़खड़ा न जाएं इसलिए आवश्यक होता है, किन्तु आत्म-साक्षात्कार के लिए निश्चयदृष्टि उपकारक होती है। मेरा यह उद्देश्य होने पर भी आज तक मेरे मन में एक अज्ञानवास कर रहाथा... शत्रु-मित्र, स्त्री का रूप, तृण, सोना, पत्थर, मणि, मृत्तिका तथा संसार और मोक्ष-इन सबके प्रति जब तक मैं समदृष्टि वाला नहीं बनता तब तक मैं स्वयं को नहीं पहचान सकता-आज से मैं समदृष्टि प्राप्त करने की ओर प्रयत्न करूंगा।'
कमलावती ये शब्द सुनकर महात्मा भर्तृहरि के चरणों में झुक गई।
५४ वीर विक्रमादित्य