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________________ ११. साहस की प्रेरणा महात्मा भर्तृहरि माधुकरी भिक्षा लेकर तत्काल लौटने ही वाले थे और वे स्वस्थ-मन सहित ऊपर की मंजिल पर पहुंच गए। ठीक उसी समय महारानी कमलावती मात्र एक वस्त्र पहने स्नानगृह से बाहर निकलीं और वस्त्रकक्ष की ओर जाने लगीं। महात्मा भर्तृहरि की दृष्टि स्वाभाविक रूप से उस ओर गई - रानी कमलावती की दृष्टि भी राजर्षि पर पड़ी। उसका मन लज्जा से भर गया - मात्र एक वस्त्र स्वर्णमय शरीर पर वेष्टित था। उन्नत उरोज स्पष्ट रूप से दीख रहे थे - अल्प वस्त्र के कारण उसका रूप लावण्य चन्द्रमा की भांति बिखर रहा था । किन्तु महात्मा भर्तृहरि तत्काल पीछे मुड़े। यह देखकर कमलावती लज्जा का त्याग कर तत्काल राजर्षि की तरफ उसी स्थिति में शीघ्रता से पैर बढ़ाती हुई आगे बढ़ी और मृदु-मंजुल स्वर में बोली- 'भगवन् ! आप मुड़ कैसे गए ?' महात्मा भर्तृहरि खड़े रह गए और नीची दृष्टि किए हुए बोले - 'भाग्यवती ! साधु को दृष्टि की पवित्रता और भाव - मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए।' 'मैं समझी नहीं ।' ‘भद्रे! संसारी व्यक्ति और त्यागी मुनि की मर्यादाओं में बहुत बड़ा अन्तर होता है। स्त्री को स्नानावस्था में देखकर साधु माधुकरी भी नहीं लेते।' 'कृपानाथ ! क्षमा करें, मैं एक प्रश्न पूछना चाहती हूं।' 'प्रसन्नता से ।' 'आप सामने खण्ड में विराजें - मैं अभी आती हूं।' रानी ने कहा । दो परिचारिकाएं दूर खड़ी थीं। महात्मा भर्तृहरि उस खंड की ओर चल पड़े । रानी कमलावती त्वरित गति से वस्त्रखंड में गईं । नीचे भयंकर कोलाहल हो रहा था। हजारों नर-नारी राजर्षि की जयजयकार कर रहे थे और दर्शन करने के लिए उतावले हो रहे थे। महाप्रतिहार, भवन के दास-दासी, मंत्री वर्ग और स्वयं मालवनाथ विक्रमादित्य भी लागों को समझाने में लग रहे थे । जिस भवन में पूरा राजसुख समाया हुआ है, जिस भवन के प्रत्येक खंड में और भवन की प्रत्येक भित्ति पर अनंगसेना के प्रेम का माधुर्य चित्रित है, जिसके कण-कण में प्रिया और प्रियतम के भावगीत चित्रित पड़े हैं - उस स्थान पर आकर भी महात्मा भर्तृहरि अपने हृदय पर एक छोटी-सी स्मृति भी नहीं उभरने देते, मानो वीर विक्रमादित्य ५३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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