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________________ कुछ क्षणों तक मौन छाया रहा, दोनों नहीं बोले.... अंत में विक्रम ने कहा, 'आंखों में क्या देख रही हो ?' 'मेरा हृदय ....' ' और वह भी मेरी आंखों में ?' 'हां, पत्नी का हृदय पति की आंखों में पूर्ण होकर ही सौभाग्य प्राप्त कर सकता है।' इतना कहकर कमला ने स्वामी के वक्षस्थल में अपना सिर छिपा लिया । किया.... T ‘प्रिय!” कहकर विक्रमादित्य ने दोनों हाथों से कमला का मुंह ऊंचा .... कमला की आंखें कमल जैसी हो गई थीं । विक्रम ने पत्नी के अधरों पर अधर टिकाकर एक दीर्घ चुम्बन लिया और फिर कहा- 'कमला ! मुझे एक विचार सताता रहता है।' पत्नी ने पति की ओर प्रश्नभरी दृष्टि से देखा । विक्रम बोले- ‘मैं सदा तुम्हारी प्रसन्नता प्राप्त करता रहूं.... इसलिए मन में इच्छा होती है कि मैं एक पत्नीव्रत की प्रतिज्ञा.....।' विक्रमादित्य अपना वाक्य पूरा करें, उससे पहले ही कमला ने उनके मुंह पर हाथ रखते हुए कहा- 'हां....हां.... ऐसी कोई प्रतिज्ञा न करें ।' 'क्यों?' 'प्रिये! मिलन की प्रथम रात्रि में आपने जो मुझे कहा था, क्या उसे भूल गए ?' 'कौन-सी बात ?' 'ज्योतिषी का कथन ।' 'ओह, शताधिक पत्नियां होंगी - नहीं - नहीं, मुझे ज्योतिषी को झूठा करना है, कमला ! तुम्हारे और मेरे बीच कोई दूसरा आए, यह मैं नहीं चाहता । ' कमला मुस्कराती रही। 'क्यों मुस्करा रही हो ?' - 'स्वामिन्! जिस ज्योतिषी की अन्यान्य बातें सही होती हैं, फिर यह बात झूठी कैसे हो सकती है ? और एक बात है, आप मालव देश के अधिपति हैंअनेक राजकन्याएं आपके पति रूप में स्वीकार करने के लिए लालायित हो सकती हैं, इसलिए आप जैसे तेजस्वी और मनोहारी पुरुष के लिए एकपत्नीव्रत शोभा नहीं देता-और आप जैसे समर्थ और शक्तिशाली पुरुष को तो वह शोभा दे ही नहीं सकता है । ' विक्रमादित्य ने कमला को छाती से लगाते हुए कहा- 'फिर तुम्हारा और मेरा.... ।' ५० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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