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महाराज विक्रमादित्य को वैभव का आकर्षण नहीं था। वे अपनी जीवनसंगिनी की महत्ता देख रहे थे। पन्द्रह दिन के सहवास के पश्चात् वे जान सके कि जैसी पत्नी वे चाहते थे, वैसी ही उन्हें प्राप्त हुई है ।
कमलावती में रूप था, पर रूप का गर्व नहीं था । उसमें यौवन था, पर यौवन की चंचलता नहीं थी । उसका हृदय प्रेम, उल्लास और आनन्द से छलक रहा था।
किसी भी नवविवाहित व्यक्ति को जीवन के प्रथम प्रहर में अपनी पत्नी अत्यन्त सुन्दर और सर्वगुण सम्पन्न ही लगती है .... विक्रमादित्य इस सत्य को जानते थे और उन्होंने पत्नी के अन्त:करण में एक पतिव्रता का ही स्वरूप देखा था ।
महारानी ने केवल पन्द्रह दिन की छोटी अवधि में राजपरिवार और राजभवन के सभी दास-दासियों का प्रेम संपादित कर लिया था ।
एक दिन रात्रि की वेला में महाराज विक्रमादित्य और महारानी कमलावती बातचीत कर रहे थे। बात-ही-बात में महादेवी अनंगसेना का प्रसंग छिड़ गया। विक्रम ने प्रश्न करते हुए कमलावती से पूछा - 'प्रिये ! तुमने अनंगसेना का वृत्तांत सुन लिया होगा ?'
'हां, स्वामी! किन्तु उस वृत्तान्त को जानने में मुझे रस नहीं है। मनुष्य जब मन की चंचलता का दास बनता है, तब वह मार्गच्युत हो जाता है। ऐसा होता है, इसीलिए तो यह संसार विचित्र मायाजाल कहलाता है।' कमला ने कहा ।
'तुम सच कह रही हो, कमला ! भाभीजी की घटना को सुनकर मेरे मन में क्या प्रतिक्रिया हुई, वह मैं तुम्हें बताना चाहता हूं।'
'आप न कहें तो भी मैं समझ चुकी हूं।'
'बोलो, क्या समझा है तुमने ?'
'नारी जाति के प्रति आपके मन में घृणा उत्पन्न हो गई होगी ?'
'सत्य कह रही हो तुम...'
'अब आगे.....?'
'कमला, तुम्हें प्राप्त करने के पश्चात् मेरा भ्रम टूट चुका है। मैं समझ चुका हूं कि आर्यावर्त की नारी निर्मल, पवित्र और आदर्श रूप होती है। अपवाद मार्ग को नहीं देखना चाहिए....अपवाद संशय पैदा करता है।' कहते हुए विक्रमादित्य प्रियतमा का हाथ पकड़ लिया ।
कमला मधुर दृष्टि से स्वामी के तेजस्वी और विशाल नयनों की ओर देखती रही ।
वीर विक्रमादित्य ४६