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और कन्या के अन्त:करण की वेदना गुरुतर होती है....किन्तु उसके मन में जीवन-साथी के साथ नये जीवन की एक आशा उसके हृदय को आनन्दित करती रहती है।
नगरी से चार कोस की दूरी तक राजा वैरीसिंह, महारानी पद्मावती तथा अन्य रानियां, मंत्री और सुभट आदि हजारों लोग पहुंचाने आये थे।
उस स्थान पर कन्या के साथ अन्तिम मिलन करते समय माता पद्मावती ने कहा- 'पुत्री ! तुम अपने पितृकुल की परम्परा का ध्यान रखना, उसकी शोभा बढ़ाना....
___ 'तुम्हारे पुण्योदय से उत्तम वर और राज्य मिला है। यदि तुम इज्जत को पचा लोगी तो तुम्हारा भवन स्वर्ग बन जायेगा।'
महाराजा वैरीसिंह पुत्री को छाती से लगाते हुए बोले- 'कमला बेटी! तू समझदार है। तुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है....किन्तु मुझे मात्र इतना ही कहना है कि प्राप्त सौभाग्य को सुरक्षित रखने के लिए हृदय की पवित्रता और उदारता को बनाये रखना....संसार में अमृत को पचाने वाले अनेक मिल सकते हैं, पर विष पचाने वाले की शक्ति विरल में ही होती है। तुझे यह शक्ति प्राप्त हो, यही कामना है।'
राजकन्या के सातों भाइयों ने बहन को सजल नयनों से विदाई देते हुए कहा- 'बहन! हमें भूल मत जाना, जो प्यार तुमने हमें दिया, उसे हम भूल नहीं सकते।'
विक्रमादित्य ने भी सास और ससुर के चरणों में प्रणाम कर प्रस्थान किया।
कमलावती एक सज्जित रथ में आरूढ़ थी। उसके साथ दो परिचारिकाएं बैठी थीं।
आगे के रथ में महाराज विक्रमादित्य, उनके एक मित्र और भट्टमात्र बैठे थे। लक्ष्मीपुर के महाराजा ने अपनी एकाकी लाडली को प्रचुर धन दिया था। बारात अवंती के मार्ग पर आगे बढ़ी।
१०. राजर्षि का आगमन अवंतीनाथ महाराजा विक्रमादित्य और महारानी कमलावती का भव्य स्वागत अवंती के नर-नारियों ने किया।
ऐसा अभूतपूर्व स्वागत उस दिन भी नहीं हुआ था, जिस दिन महाराज भर्तृहरि ने अनंगसेना के साथ अवंती में प्रवेश किया था।
४८ वीर विक्रमादित्य