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विक्रमादित्य ने तत्काल दो थाल परोसकर लाने की आज्ञा दी ।
भोजन से निवृत्त होकर वैताल चला गया। विक्रमादित्य विश्राम करने लगे ।
६. कमलावती
राजसभा का कार्य प्रारम्भ हो चुका था। युवक महाराज विक्रमादित्य मालव के राजसिंहासन पर सूर्य की भांति शोभित हो रहे थें
आज राजसभा में एक नया आदमी आया था और वह एक कोने में बैठकर राजसभा की कार्यवाही देख रहा था। विक्रमादित्य को देखकर उसके मन में अनेक विचार आ रहे थे। उसने खड़े होकर राजा को आशीर्वाद देना चाहा, , तीन-चार बार खड़े होने का मन किया, पर खड़ा नहीं हो सका। उसने सोचा, राजसभा की कार्यवाही के बीच दखल देना शोभास्पद नहीं होता ।
राजसभा के महादण्डक ने जब शिकायत करने के लिए आए लोगों को आगे आने के लिए कहा, तब वह अपरिचित व्यक्ति खड़ा हुआ ।
महामंत्री ने तत्काल कहा - 'राजराजेश्वर महाराजा विक्रमादित्य के समक्ष कुछ शिकायत करनी हो, निस्संकोचपूर्वक करो।' 'मेरी कोई शिकायत नहीं है.....'
'तो फिर आने का प्रयोजन ?'
'मुझे मात्र आशीर्वाद देना।
महाराज विक्रमादित्य के कानों में ये शब्द टकराए। उन्होंने सामने खड़े मनुष्य की ओर देखा, देखते ही तत्काल सिंहासन से उठे - 'अरे भट्टमात्र ! मित्र ! तुम अचानक कहां से? किसी भी प्रकार का सन्देश नहीं.... भले मनुष्य ! तुम सीधे राजभवन में आ जाते.... चलो, अब मेरे पास आओ....'
सारी सभा भट्टमात्र की ओर देख रही थी । भट्टमात्र धीरे-धीरे चलकर महाराज विक्रमादित्य के पास गया ।
विक्रमादित्य प्रसन्नता से गलबांह डालकर उससे मिले और बोले- 'तुम्हारा अवधूत आज ही राजसिंहासन का सेवक बना है.... '
'नहीं महाराज ! आप स्वामी बने हैं।' कहते हुए भट्टमात्र ने आशीर्वाद देते हुए श्लोक कहे ।
विक्रमादित्य बोले - 'मित्र ! स्वामी बनने में बन्धन हो जाता है.... सेवक बनने में मुक्ति का आनन्द प्राप्त होता है.... ।' यह कहकर उन्होंने सभा के समक्ष अपने प्रवास-साथी भट्टमात्र और उसकी बुद्धिशक्ति का परिचय दिया।
४४ वीर विक्रमादित्य