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________________ विक्रमादित्य महात्मा भर्तृहरि की ओर एकटक देखते रहे । फिर चरणों में सिर झुका, महात्मा का मंगल आशीर्वाद प्राप्त कर विक्रम गुफा के बाहर आ गए। बाहर निकलने के पश्चात् अग्निवैताल प्रकट होकर बोला- 'मित्र ! महात्मा भर्तृहरि धन्य हैं.... सुख, सत्ता, समृद्धि और वैभव का सर्वथा त्याग करना देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। जिसके हृदय में पराक्रम होता है, वही त्यागरूपी पारद को पचा सकता है.....सामान्य जन्तुओं का यह काम नहीं है । ' 'तुम्हारी बात सत्य है, मित्र !' कहकर विक्रम ने अग्निवैताल का हाथ पकड़ा। 'अब तो घर ही जाना है न ?' 'हां, महात्मा भर्तृहरि कब आएंगे, यह निश्चित नहीं है.... परन्तु एक बार अवश्य आएंगे ।' कहकर विक्रम ने आंखें बन्द कीं। कुछ ही क्षणों में दोनों अवंती नगरी के राजभवन के कक्ष में पहुंच गए। भर्तृहरि से मिलने के लिए जाने से पूर्व विक्रमादित्य ने रामदास को बता दिया था, इसलिए सब निश्चिन्त थे । भोजन का समय बहुत पहले ही हो चुका था। अग्निवैताल ने जब जाने की आज्ञा मांगी, तब विक्रम बोले- 'मित्र ! आज हम दोनों साथ में ही भोजन क्यों न करें ?' ‘मेरा ऐसा भाग्य कहां ? फिर भी मैं आपका मान रखूंगा।' 'भाग्य की बात ?' 'मध्य रात्रि से पूर्व भोजन की इच्छा ही नहीं होती । ' 'ओह, तो फिर तुम रोज क्या खाते हो ?' 'यही मेरी भाग्यहीनता है.... मैं अपने लिए कोई वस्तु मंगा नहीं सकताइसलिए मुझे वन-उपवन के फल-फूलों पर ही निर्भर रहना पड़ता है।' अग्निवैताल ने कहा । - विक्रम ने रामदास को बुलाकर कहा- 'रामू ! आज हम दोनों यहीं भोजन करेंगे। आज तू कन्दोई के यहां सेवक को भेजकर चार मन मिठाई ....' बीच में ही अग्निवैताल बोल पड़ा- 'महाराज ! अभी मैं आप जितना ही भोजन कर सकूंगा... बाहर से कोई वस्तु मंगाने की जरूरत नहीं है।' 'सच कह रहे हो ?' 'हां....' वीर विक्रमादित्य ४३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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