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________________ 'हां, मैं सच कहता हूं।' 'नहीं, आप मेरे साथ ही अवंती पधारें और मालव देश के स्वामी बनकर जनता का कल्याण करें।' '_ 'पागल कहीं के!' कहकर महात्मा भर्तृहरि हंस पड़े और हंसते-हंसते बोले, 'विक्रम ! जिस दिन क्षत्रिय त्यक्त वस्तु के ग्रहण करने की बात सोचेगा, उसी दिन संसार का प्रकाश नष्ट हो जाएगा....उस दिन लोग त्याग का परिहास करेंगे और भोग को अमृत मानकर अपनाते रहेंगे। तुम धर्म में स्थिर रहना....राज्य करना, पर राजलक्ष्मी के दास मत बन जाना। तुम हमेशा जागृत रहना....भाई विक्रम! जाओ, सुखपूर्वक राज्य करो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारी सदा रक्षा करेगा।' परन्तु विक्रम ने बड़े भाई के चरण नहीं छोड़े और वे चरणकमलों में आंसुओं के फूल बिछाते ही रहे। 'भर्तृहरि के भाई होकर रो रहे हो?' 'महात्मन् ! रुदन के अतिरिक्त मेरे पास है ही क्या? आपके सर्वत्याग का मैं ही तो निमित्त बना हूं।' 'विक्रम ! इस प्रकार निमित्त बनना भी उत्तम पुण्य का संचय है.....संसार के कार्यों में अनेक व्यक्ति निमित्त बनते हैं, परन्तु त्याग का निमित्त बनना बहुत बड़ी बात है, परम सौभाग्य की बात है...मैं तुम्हें स्पष्ट बता देना चाहता हूं कि आज मुझे जो अपूर्व आनन्द की उपलब्धि हो रही है, वह अवाच्य है, अनन्त है।' अन्त में, जब विक्रम भाई को राज्य की ओर मोड़ने में सफल नहीं हो सके, तब बोले- 'बड़बन्धव! मेरी एक बात आपको माननी होगी।' 'कहो....' एक बार कुछ समय के लिए आप राजभवन में पधारें....इस गुफा की अवस्था देखकर मेरा हृदय जलकर राख हो गया है।' 'राजमहल की चमक-दमक से अधिक क्या तुम्हें यहां अधिक शांति का अनुभव नहीं होता?' 'महात्मन् ! यहां आपका स्वास्थ्य....आपका भोजन....' मुस्कराते हुए भर्तृहरि ने बीच में कहा- 'त्यागी व्यक्ति की ऐसी कोई कामना नहीं होती, कुछ अधिक आवश्यकताएं नहीं होती....और मैं अवंती में अवश्य आऊंगा, पर राजभवन में नहीं।' 'तो फिर?' 'नगरी के बाहर किसी वृक्ष के नीचे आसन बिछाऊंगा। त्यागपथ के पथिक को राज के खिलौनों में रस दिखाना शोभा नहीं देता। तुम मेरी चिन्ता मत करना, निश्चिन्त रहना।' ४२ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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