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________________ गुफा में अन्धकार व्याप्त था... एक स्थान पर प्रकाश की कुछ रेखाएं फूट रही थीं। बाहर से गुफा छोटी-सी लग रही थी, पर अन्दर से इतनी विशाल थी कि विक्रम उसे देखकर आश्चर्यचकित रह गए....उस गुफा में लगभग सौ व्यक्ति रह सकते हैं - इतनी बड़ी थी..... एक कोने में प्राकृतिक झरना बह रहा था.... एक शिला पर लंगोटी पहने महाराज भर्तृहरि ध्यानमग्न होकर बैठे थे । बड़े भ्राता को इस अवस्था में देखकर विक्रम के धीरज का बांध टूट गया। करुण स्वर में 'भाई ! बड़े भाई ! मेरे मार्गदर्शक !' कहते हुए वे आगे बढ़े और बड़े भाई के चरण-कमल में लुढ़ककर बोले- 'बड़े भाई ! आपने..... आपने यह क्या कर डाला? मुझे आधारहीन छोड़ते समय आपके हृदय को झटका नहीं लगा ?' महाराज भर्तृहरि ध्यान को सम्पन्न कर जागृत हुए। विक्रम के करुण स्वर ने उनकी समाधि में अन्तराय उत्पन्न कर डाला। उन्होंने प्रसन्न दृष्टि से विक्रम की ओर देखा । विक्रम के नयन सजल हो गए थे । महात्मा भर्तृहरि ने लघु बांधव विक्रम के सिर पर हाथ रखते हुए कहा'विक्रम ! मैं सब कुछ भूल गया था, केवल तुमको नहीं भूल सका था। आज देवकृपा से मैं निश्चिन्त हो गया ।' - 'बड़े भाई.....' 'विक्रम ! आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। यह संसार आश्चर्यों से भरा पड़ा है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी आश्चर्यों का भंडार है।' विक्रम मौन थे। वे कुछ भी नहीं बोल सके.....उनका हृदय रोने के लिए आतुर हो रहा था.... उनकी आंखों से आंसुओं के मोती बिखर रहे थे। महात्मा भर्तृहरि बोले- 'विक्रम ! मैं नारी के रूप- -यौवन में अन्धा बन गया था, किन्तु किसी पुण्योदय से मैं समय रहते जाग गया। यदि मैं नहीं जागता तो... ' 'भाईजी ! ऐसे तुच्छ निमित्त के कारण आपने राज्य-त्याग क्यों किया ? मुझे अनाथ क्यों बना डाला ?' गद्गद स्वर में विक्रम ने कहा । भर्तृहरि ने विक्रम की पीठ पर हाथ रखते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा - विक्रम ! मनुष्य पाप कर बैठता है और यदि पाप ज्ञात हो जाने पर प्रायश्चित्त नहीं करता, तो वह पाप अन्यान्य पापों का संचय करता रहता है। मेरे से भी एक पाप हो गया था और उस पाप के लिए ही मैंने एक गुरुतर पाप कर डाला - तुझे देश से निष्कासित कर दिया.....यदि मैं मोहान्ध नहीं बनता, तो मेरे लिए कोई प्रश्न ही खड़ा नहीं होता..... भाई ! जो कुछ हुआ है, वह अच्छा ही हुआ है। मालव देश की प्रजा का कल्याण अब तुझे ही करना है।' 'बड़े भाई जी..... बड़े भाई जी....' वीर विक्रमादित्य ४१
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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