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________________ 'ओह!' कहकर अग्निवैताल ने विक्रमादित्य को बांहों में भर लिया। 'मित्र ! मैं अपने बड़े बन्धु महाराज भर्तृहरि से मिलना चाहता हूं।' 'महाराज! तैयार हो जाएं।' अग्निवैताल ने कहा। 'मैं तैयार ही हूं। वे अभी किस ओर गए हैं ?' विक्रमादित्य ने पूछा। अग्निवैताल ने कुछ क्षणों तक आंखें मूंद ली....फिर वह बोला-'प्रिय विक्रम ! आपके बड़े भाई चित्रकूट के सघन वन-प्रदेश में हैं।' 'तो हम वहां चलें?' 'अभी?' 'हां....' 'तो आप आंखें मूंदकर मेरा हाथ पकड़ लें।' वैताल ने कहा। विक्रम ने आंखें बन्द कर वैताल का एक हाथ मजबूती से पकड़ लिया। दूसरे ही क्षण वैताल बोला-'हम पहुंच गए हैं। अब आप आंखें खोलें।' 'बस, इतने शीघ्र !' आश्चर्य का अनुभव करते हुए विक्रम ने आंखें खोलीं। उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा....न राजभवन था....न अवंती नगरी....न था शयन-कक्ष....था केवल भयंकर वन और छोटी-छोटी पहाड़ियां....।। वैताल बोला- 'यह वन बहुत भयंकर है....चित्रकूट पर्वत के चारों ओर सिंह, व्याघ्र, वराह आदि हिंस्र पशु बड़ी संख्या में रहते हैं।' 'महात्मा भर्तृहरि कहां हैं ?' 'सामने वाली गुफा में।' 'ओह ! ऐसी भयंकर गुफा में.......?' 'आप अन्दर जाएं....मैं अदृश्य रूप में आपके साथ रहूंगा।' कहकर वैताल अदृश्य हो गया। विक्रमादित्य उस गुफा की ओर आगे बढे। गुफा के द्वार पर उन्हें एक भयंकर अजगर दिखाई दिया....विक्रम ने तत्काल तलवार म्यानमुक्त कर ली। अदृश्य वैताल बोल पड़ा- "मित्र! यह अजगर नहीं है।' 'तो फिर ?' 'एक हठयोगी है....तीन वर्षों से यह अजगर के रूप में रहकर केवल वायु का भक्षण करता है....महात्मा भर्तृहरि इसी हठयोगी की गुफा में रहते हैं।' विक्रम ने तलवार को पुन: म्यान में रखा और हाथ जोड़कर अजगर को नमन कर गुफा में प्रवेश करने के लिए सिर झुकाया। ४० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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