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________________ एक दिन महामंत्री राजभवन के मंत्रणागृह में महाराज विक्रमादित्य से मिले और प्रार्थना के स्वरों में बोले- 'कृपानाथ ! आप किसी योग्य और कुलीन कन्या के साथ विवाह करें।' 'महामंत्री ! मुझे ध्यान है.... किन्तु कुछ समय तक धैर्य रखना होगा..... मैं एक बार अपने बड़े भाई से मिलना चाहता हूँ.... ।' महामंत्री बोले- 'राजन् ! महात्मा भर्तृहरि गंगातट के वन प्रदेश की ओर गए थे.....उसके पश्चात् उनके कोई समाचार प्राप्त नहीं हो सके हैं। एक बात और है कि वैराग्य में इतने रच-पच गए हैं कि वे ग्राम, नगर या मानव बस्ती में आतेजाते ही नहीं हैं । 'फिर भी मुझे उनसे मिलना है।' 'ठीक है, किन्तु आप विवाह सूत्र में बंधकर फिर आशीर्वाद लेने जाएं; यह अधिक उचित होगा ।' 'महामंत्री ! मेरा विचार उनको यहां लाने का है.... ।' बीच में महामंत्री ने कहा- 'यह अशक्य है.... हमने उनको समझाने में कोई कसर नहीं रखी थी। वे अब किसी भी परिस्थिति में पुन: सांसारिक झंझटों में फंसना नहीं चाहते ।' ‘महामंत्री! आपके समझाने में और मेरे निवेदन करने में बहुत बड़ा अन्तर है। महाराजा के इस त्याग का निमित्त महारानी ही नहीं, मैं भी हूं ।' 'आप ?' 'हां, महाराज का मेरे पर अटूट प्रेम था और अज्ञात दशा में उनके हाथ से एक अन्याय घटित हो गया। यथार्थ की जानकारी होने पर उनके मन की पीड़ा को मैं समझ सकता हूं, दूसरा कोई नहीं। मेरे निमित्त से ही उन्होंने इतना कठोर प्रायश्चित्त स्वीकार किया है, ऐसा मैं मानता हूं।' ‘किन्तु आप उनकी खोज कहां करेंगे ?' ‘मेरा एक मित्र है । महाराज संसार के किसी भी कोने में हों, वह उनको ढूंढ लेगा ।' विक्रमादित्य ने कहा । और चार दिन के पश्चात् प्रात:काल के होते-होते विक्रमादित्य ने अग्निवैताल को याद किया। अग्निवैताल तत्कार हाजिर हो गया और प्रसन्न स्वर में बोला- 'महाराज, क्या आज्ञा है ?' 'मित्र ! एक बात की विस्मृति नहीं होनी चाहिए कि तुम मेरे मित्र हो, नौकर नहीं ।' वीर विक्रमादित्य ३६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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