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विराट्काय राक्षस के समक्ष विक्रमादित्य वामन प्रतीत हो रहे थे, किन्तु उन्हें विश्वास था कि उनको सौ वर्ष के आयुष्य का कोई भी खण्डन करने में समर्थ नहीं है।
लगभग अर्द्धघटिका के मल्लयुद्ध के पश्चात् विक्रमादित्य ने अवसर देखकर अग्निवैताल के यकृत पर जोर से अपना सिर मारा....और अग्निवैताल जोर से चीखता हुआ जमीन पर गिर पड़ा....क्षणभर का भी विलम्ब किए बिना विक्रमादित्य उसकी छाती पर जा बैठे और दोनों हाथों से उसका गला दबोचते हुए बोले'मूर्ख ! तुमने ही तो कहा था कि मेरे आयुष्य को कोई न्यून या अधिक नहीं कर सकता....क्या इतने अल्प समय में ही तुम इस सत्य को भूल गए?'
अग्निवैताल बोला-'मित्र ! मुझे क्षमा करो....क्रोध के वशवर्ती होने के कारण मैं इस सत्य को भूल गया था...अब मैं तुम्हारा मित्र नहीं, दास बनना चाहता हूं....मैं तुम्हारी शक्ति और हिम्मत को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूं....तुम्हें जो चाहिए, वह मांग लो।'
विक्रमादित्य तत्काल उसकी छाती पर से उठ खड़े हए और हंसते-हंसते बोले- 'मित्र! तुम मेरे दास नहीं, मित्र ही हो....तुमको भोग देने की प्रतिबद्धता का निर्वाह मेरे लिए कठिन था....'
अग्निवैताल उठा, बोला- 'तुम मुझको वचन में बांध लो।'
विक्रम बोला- 'मैं जब-जब तुमको याद करूं, तब-तब तत्काल हाजिर हो जाना और जो कहूँ, वह कार्य संपादित कर देना।'
अग्निवैताल ने विक्रम को छाती से लगाते हुए कहा- 'विक्रम ! मैं अपनी शक्ति की शपथ से तुम्हारे वचनों के अनुसार अपने-आपको बांधता हूं।'
विक्रम ने तत्काल रामदास की ओर देखकर कहा- 'रामू ! मेरे मित्र को नमस्कार कर और पास वाले खंड में वसन्त मोदक से भरे दो थाल पड़े हैं, उन्हें यहां ले आ।'
रामू अग्निवैताल को नमस्कार कर खंड का द्वार खोलकर बाहर चला गया। शयनखंड के बाहर प्रहरी, महाप्रतिहार आदि एकत्रित हो गए थे।
८. महात्मा भर्तृहरि चैत्र मास पूरा हुआ। महाराज विक्रमादित्य की व्यस्तता कुछ कम हुई, क्योंकि मिलने के लिए आने वाले लोगों से निवृत्ति मिल गई थी और राजसभा का कार्य भी व्यवस्थित हो गया था। ३८ वीर विक्रमादित्य