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विक्रम नींद का अभिनय कर शय्या में सो रहे थे। अग्निवैताल ने रोष भरे शब्दों में कहा-'विक्रम ! आज ऐसा क्यों?' विक्रम ने सोते-सोते ही कहा- 'मित्र! क्या बात है?' 'मेरे लिए भोग की सामग्री कहां है?' 'जनता केधन का मैं इस प्रकार दुरुपयोग कितने समय तक करता रहूं?'
'जनता का धन ! दुष्ट, मेरी मित्रता के साथ ऐसा द्रोह!....तुमने मुझे भोग देने का वायदा किया था, याद है तुमको?'
'हां, याद है! पर सदा-सदा के लिए देने की बात नहीं कही थी।' 'तब तो आज तुमने अपनी मौत को निमंत्रण दे डाला है।'
'मौत मेरी होगी या तुम्हारी, यह कौन जान सकता है ? मैं क्षत्रिय हूं....मैं मौत से नहीं डरता। क्षत्रियों ने इन्द्र के साथ भी युद्ध किया है..तुम क्या चीज हो? उठाओ अपनी तलवार....!'
___ उत्तर में अग्निवैताल ने जोर से अपना सिर धुना और एक दुधारी तलवार उसके हाथ में आ गई। वह गर्जन करता हुआ बोला- 'आज तुम्हारे जीवन का अन्तिम दिन है....जब मौत सिर पर मंडराती है, तब मनुष्य की मति स्थिर नहीं रहती।'
'मुझे भी ऐसा ही प्रतीत हो रहा है....तुम्हारे सिर पर मौत की काली छाया नाच रही है, इसलिए तुम मेरे अभिप्राय को नहीं समझ पा रहे हो'-कहकर विक्रम भी तलवार लेकर तैयार हो गया।
रामदास कांप रहा था....उसके नयन विस्फारित हो गए थे....बीस वर्ष के उम्र वाले महाराज इस पर्वताकार राक्षस से कैसे निबटेंगे?
दोनों में तलवार-युद्ध प्रारम्भ हुआ।
विक्रमादित्य जैसे धनुर्विद्या में निपुण थे, उसी प्रकार तलवार चलाने में भी कुशल थे। वे चपलता से अग्निवैताल को मंडलाकार घुमाने लगे....कुछ ही क्षणों के पश्चात् विक्रमादित्य ने एक ऐसा प्रहार किया कि अग्निवैताल के हाथ से तलवार छूटकर भूमि पर जा गिरी।
क्षणभर के लिए अग्निवैताल अवाक रह गया।
विक्रमादित्य ने अपनी तलवार फेंकते हुए कहा- 'अपना पौरुष दिखाने का मैं तुम्हें अवसर देता हूं....द्वन्द्व-युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।'
राक्षस को यही चाहिए था। दोनों मल्लयुद्ध में जुट गए, पैंतरा बदलने लगे।
वीर विक्रमादित्य ३७