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राज्यसभा का कार्य सम्पन्न कर विक्रमादित्य राजभवन में आए। मिलने के लिए आए लोगों का तांता लगा हुआ था। दो प्रहर रात बीत गई थी। महाराज शयनकक्ष में गए। रामदास प्रतीक्षा कर रहा था। महाराज को देखकर वह उठा और मस्तक झुकाकर एक ओर खड़ा हो गया।
विक्रमादित्य ने कहा- 'रामू ! आज तू मेरे इसी शयनकक्ष के सामने वाले झरोखे के पास सो जाना।'
'जैसी आज्ञा.....क्या आज राक्षस नहीं आएगा?' 'आएगा तो अवश्य ही....' 'तो फिर....?'
'आज उसके साथ अन्तिम समाधान कर लेना है....इस प्रकार भोग देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।' विक्रम ने कहा।
'महाराज! तो फिर वह राक्षस अत्यन्त कुपित होकर आपको...' 'रामू ! वह मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।' 'नहीं, कृपानाथ! इससे तो अच्छा है आप.....?' 'क्या?'
'आप दूसरे खंड में सो जाएं। आपकी पोशाक पहनकर मैं यहां सो जाऊंगा।'
विक्रम ने मुस्कराकर कहा- 'तू क्या कर सकेगा?' 'रोष से भरा हुआ वह राक्षस मेरा भोग लेकर चला जाएगा।'
'रामू ! अग्निवैताल बहुत चतुर है। इस प्रकार समस्या का समाधान नहीं होगा। तू देखते रहना....अब जैसा मैंने कहा है, वैसा कर।' विक्रम ने कहा।
विक्रमादित्य ने म्यानमुक्त कर तलवार शय्या पर रख ली थी। वे वस्त्र बदलकर सो गए।
रामदास भी निर्दिष्ट स्थान पर सो गया। रात्रि का मध्य। दोनों जाग रहे थे। दोनों अग्निवैताल के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। और खुले वातायन से अदृश्य रूप में अग्निवैताल ने खंड में प्रवेश किया।
आज खाद्य सामग्री न देखकर वह रोष से भर गया और तत्काल अट्टहास करता हुआ विकराल रूप में प्रकट हुआ।
रामदास तो अग्निवैताल के विकराल रूप को देखकर थर-थर कांपने लगा। उसनेमन-ही-मन सोचा-आज यह दुष्ट राक्षस महाराज को खा जाएगा....महाराज ने ऐसा दुराग्रह क्यों किया....?
३६ वीर विक्रमादित्य