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'मैं विवश हूं, राजन् ! तुमने सुना होगा कि जब भगवान महावीर मुक्त होने की स्थिति में थे, तब इन्द्र ने आकर प्रार्थना की कि भगवन्, आप क्षणभर के लिए आयुष्य को बढ़ा लें ! किन्तु उस समय भगवान् ने कहा-'असंभव...असंभव... असंभव...।'
'मित्र! क्या कोई दूसरा उपाय नहीं है ? यदि मैं निन्यानवे वर्ष में आत्महत्या कर लूं, तो....?'
'तो भी तुम बच जाओगे।' 'किसी युद्ध में अग्रिम मोर्चे पर चला जाऊं तो?'
'तब भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। जितने श्वास तुम्हारे आयुष्य के लिए निश्चित हो चुके हैं, उसमें किसी के द्वारा परिवर्तन नहीं हो सकता।'
'जैसा भाग्य' कहकर विक्रम ने नि:श्वास छोड़ने का अभिनय किया।
अग्निवैताल ने विक्रम के कंधे पर हाथ रखकर हंसते हुए कहा-'अरे मित्र! यह तो अच्छा और पूरा आयुष्य कहलाता है....शून्य के चक्कर में क्यों फंस गए?'
कुछ समय पश्चात् अग्निवैताल विदा लेकर वहां से अदृश्य हो गया।
मन में प्रसन्नता का अनुभव करते हुए महाराज विक्रमादित्य अपनी सुकोमल शय्या पर निद्राधीन हो गए।
तीन दिन और बीत गए। विक्रम का विश्वस्त और निजी सेवक रामदास गांव से लौट आया था। वह पुन: स्वामी की सेवा में जुट गया। उसके आगमन से विक्रमादित्य को बहुत आनन्द हुआ। निजी कार्य की चिन्ता दूर हो गई।
चौथे दिन विक्रमादित्य ने वैताल के लिए खाद्य सामग्री न रखने का निर्देश दिया। यह सुनकर महामंत्री बुद्धिसागर ने कहा- 'महाराज! वह राक्षस पुन: कुपित हो जाएगा।'
___ 'इस भय से प्रतिदिन इतना व्यय करना उचित नहीं है। मैं उससे निपट लूंगा।'
___ 'कृपानाथ! अग्निवैताल बहुत दुष्ट है...संभव है आपके जीवन के लिए वह खतरा बन जाए।'
'मेरे जीवन के लिए जनता के अर्थ का इस प्रकार दुरुपयोग करना हीनता है, दीनता है....और क्षत्रिय की संतान यदि खतरे का सामना न करे, तो उसे राज्य करने का कोई अधिकार नहीं है।'
महाराज विक्रमादित्य के इस अडोल धैर्य को देखकर महामंत्री अवाक् रह गए।
वीर विक्रमादित्य ३५