________________
अग्निवैताल ने हंसते हुए कहा- 'क्या किसी सुन्दरी में मन फंस गया है ? उसकी कल्पना तुम्हें पीड़ादे रही है? यदि ऐसा कुछ हो तो मुझे बताओ, मैं पलक झपकते ही उसे तुम्हारे सामने हाजिर कर दूंगा।'
'नहीं, मित्र ! ऐसी कोई कल्पना मन में उठी ही नहीं।' 'तो फिर किस बात की चिन्ता है ?'
'मित्र! पीड़ा तो इतनी ही है कि मैं नहीं समझ सका कि मेरा आयुष्य कितना है? जिस व्यक्ति को अपनी मौत की जानकारी नहीं होती, उसके जीने में कोई आनन्द नहीं आता। बार-बार मन में संशय जागता है और मन में भावना होती है कि किसी ज्योतिषी को दिखाकर जानूं....यदि तुम अपनी शक्ति से मेरे आयुष्य की मर्यादा बता सको, तो मेरी चिन्ता दूर हो सकती है।'
___ 'क्या यह कोई बड़ी बात है ? मैं अभी तुम्हें बता देता हूं।' यह कहकर अग्निवैताल कुछ क्षणों के लिए ध्यानमग्न हो गया, फिर बोला-'मित्र! तुम्हारा आयुष्य बहुत लम्बा है। पूरे सौ वर्ष तक तुम जीओगे।'
'देखो मित्र ! मुझे राजी करने के लिए मत कहना।'
'नहीं, विक्रम ! मैं सत्य कह रहा हूं....संसार की कोई भी शक्ति सौ वर्ष से पहले तुम्हारा नाश नहीं कर सकती।'
'यह भविष्य बताकर तुमने मुझे और चिन्तित कर डाला।'
'कैसे?' - 'क्या तुम नहीं जानते कि शून्य घर, शून्य वन, प्रतिमा से शून्य मंदिर और सैन्य-शून्य राजा कभी शोभित नहीं होते। शून्य अमंगल का सूचक है....मेरे आयुष्य में एक नहीं, दो-दो शून्य आ गए हैं।'
_ 'मित्र! अभी तुम उगते युवक हो....जीवन बहुत लम्बा है...घबराने की बात नहीं है।'
'अमंगल शून्य से मन बहुत उदास हो रहा है....किन्तु तुम समर्थ हो....जो चाहो सो कर सकते हो। मेरे लिए इतना मात्र कर दो-या तो मेरा आयुष्य निन्यानवे वर्ष का कर दो या फिर एक सौ ग्यारह वर्ष का कर दो। इससे शून्य मिट जाएंगे और अमंगल दूर हो जायेगा।'
'राजन् ! आयुष्य की जो मर्यादा निर्धारित होती है, उसमें विधाता भी हेर-फेर नहीं कर सकता। आयुष्य न कम किया जा सकता है और न बढ़ाया जा सकता है।'
'अरे! क्या तुम्हारे जैसा शक्ति-सम्पन्न मित्र मेरा यह तुच्छ कार्य नहीं कर सकता?'
३४ वीर विक्रमादित्य