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होता है, उस राजा को कोई दु:ख नहीं हो सकता....राजा को चाहिए कि वह ऐसी प्रजा का सेवक बन जाए।
विक्रमादित्य ने मन ही मन प्रजा की सेवा और कल्याण करने का संकल्प कर लिया।
समग्र राज्य में उत्सव मनाया जा रहा था.....गांव-गांव से जन-समूह राजा को वर्धापित करने आ रहे थे। वे सब राजा का दर्शन पाकर अपने को कृतकृत्य अनुभव करते थे।
लोगों की भेंट स्वीकार करते-करते प्रतिदिन मध्यरात्रि बीत जाती थी और उसी समय वहां अग्निवैताल आता और तृप्त होकर चला जाता। वह किसी भी प्रकार का उपद्रव नहीं करता था।
किन्तु विक्रमादित्य ने सोचा, प्रतिदिन इतनी भोज्य सामग्री की व्यवस्था करना उचित नहीं है। इससे तो सारा कोष ही रिक्त हो सकता है और प्रजा के कल्याणकारी कार्यों में बाधा आ सकती है।
पन्द्रह दिन बीत गए। सोलहवीं मध्यरात्रि में अम्निवैताल आया, बलि की सामग्री से तृप्त होकर जाने लगा। विक्रमादित्य ने कहा-'मित्र! आज इच्छा हो रही है कि मैं तुम्हारे साथ कुछ बातें करूं।'
___ 'प्रसन्नता से, मित्र!' कहकर विकराल रूप वाला अग्निवैताल विक्रमादित्य के पलंग पर बैठ गया।
विक्रमादित्य ने अग्निवैताल की ओर देखते हुए कहा-'मित्र! तुम्हें देखने के पश्चात् मेरे मन में एक प्रश्न घुलता रहता है....प्रतिदिन पूछने की बात सोचता हूं, पर आज तक पूछ नहीं सका।'
'उस प्रश्न का समाधान आज कर लो।' अग्निवैताल ने कहा।
'मुझे आश्चर्य होता है कि तुम्हारी शक्ति कितनी होगी? तुम्हारा प्रभाव कितना होगा? क्या तुम जो चाहो, वह कार्य कर सकते हो?'
. अग्निवैताल जोर से हंस पड़ा। वह बोला- 'विक्रम ! मेरी शक्ति का कोई पार नहीं है। कार्य कितना भी दुष्कर हो, मैं उसे निमिष मात्र में कर सकता हूं....जहां चाहूं वहां पल भर में जा सकता हूं....मनुष्य तो मेरे लिए एक सामान्य प्राणी है....मैं चाहूं तो किसी भी पुरुष को अपनी मुट्ठी में दबाकर निचोड़ सकता हूं....मेरे प्रभाव की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते....मैं इच्छित रूप करने में समर्थ हं....मैं केवल अपने अट्टहास से समूचे नगर को कम्पित कर सकता हूं....और....'
बीच में विक्रमादित्य बोले-'ओह! तब तो तुम सर्वशक्तिमान् हो....मित्र ! तुम्हें मित्र रूप में पाकर मैं वास्तव में धन्य बना हूं। किन्तु एक चिन्ता मेरे हृदय को कुरेद रही है....।'
वीर विक्रमादित्य ३३