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विक्रमादित्य ने कहा- 'अरे! क्या तूने मुझे पहचान लिया ?'
'अन्नदाता! क्या आप ही अवधूत बने थे? ओह ! भगवान की लीला अपरंपार है।'
'अब तैलमर्दन कर मुझे स्नान करा....फिर मेरे साथ ही बाहर निकलना।' ऐसा ही हुआ।
स्नानादि से निवृत्त होकर विक्रमादित्य ने राजवेश धारण किया, कुछ अलंकार पहनकर बाहर आए।
अपने प्रिय युवराज को सामने देखकर महाप्रतिहार चौंका। वह बोल उठा-'आप!'
'आश्चर्य तो इस बात का है कि किसी ने मुझे नहीं पहचाना.....अब मुझे मंत्रिमंडल के पास ले चलो।'
महाप्रतिहार हर्ष के आवेश में गदगद हो गया।
जब महाराज विक्रमादित्य नीचे के खंड में आए, तब उन्हें देखकर सभी मंत्री अवाक रह गए। महामंत्री ने कहा- 'युवराजश्री! आप!'
'वर्षों तक साथ में रहने के बावजूद आपमें से किसी ने मुझे नहीं पहचाना!' 'क्या आप ही अवधूत बने थे?' नगरसेठ ने प्रश्न किया।
'हां, सेठजी!.....भाग्य मुझे यहां खींच लाया....अब मैं आज सबको रात की सारी घटना बताता हूं'-कहकर विक्रमादित्य एक आसन पर बैठ गए।
अवधूत महाराज ही स्वयं विक्रमादित्य हैं, यह बात सारे राजभवन में फैल गई।
राजभवन के सभी दास-दासी हर्ष व्यक्त करने के लिए आने लगे।
राजपरिवार वालों को भी यह बात ज्ञात हुई और वे सब आनन्द से उछलने लगे।
विक्रमादित्य ने सारी घटित घटना को विस्तार से कहा और अग्निवैताल मित्र बना है, यह भी कहा।
सभी मंत्री बहुत आनन्दित हुए। उन्होंने सारे राज्य में हर्षोत्सव मनाने की घोषणा प्रसारित की।
७. प्रथम विजय अवंती नगरी के हर्ष का कोई पार नहीं रहा। उत्सव मनाते-मनाते दस दिन बीत गए। नगरी के श्रीमन्त लोगों के घर विक्रमादित्य को जाना पड़ता.... जनता की बधाइयां झेलनी होतीं। उसने सोचा-जिस राज्य में ऐसी प्रेममयी प्रजा का निवास
३२ वीर विक्रमादित्य