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उसके बाद अग्निवैताल ने विक्रमादित्य से हाथ मिलाया और अदृश्य होकर चला गया।
विक्रम ने सुख की सांस ली और नमस्कार महामंत्र का जाप करते-करते शय्या में निद्राधीन हो गए।
राजभवन के सभी रक्षक आकुल-व्याकुलथे। सभी के मन में यह निश्चय था कि प्रात:काल अवधूत महाराज की शवयात्रा निकलेगी। यह दुष्ट देव किसी को नहीं छोड़ता.....।
प्रात:काल हुआ।
सूर्योदय होते ही अवधूत महाराज की संभाल लेने के लिए मंत्रिमंडल के आठ मंत्री आ गए। महामंत्री बुद्धिसागर और नगरसेठ भी आ गए।
राजभवन के मुख्य रक्षक ने कहा- 'दुष्ट देव रात्रि में आया था।' 'फिर क्या हुआ?' 'शयनकक्ष के द्वार तो बंद हैं।' 'अभी तक महाराज जागृत नहीं हुए?' नगरसेठ ने पूछा। 'नहीं....'
सभी मंत्रियों के मनशंकित हो गए। सभी शयनकक्ष के मुख्य द्वार पर जाकर खड़े हो गए। नगरसेठ ने द्वार की सांकल को खड़खड़ाया।
कुछ क्षणों बाद भीतर से विक्रमादित्य ने कहा- 'कौन?'
'महाराज की जय हो!' महामंत्री ने उल्लास के साथ कहा। सभी के चित्त प्रसन्न हो गए।
अवधूत महाराज शय्या से उठे, द्वार खोला।
नगरसेठ ने नमस्कार कर प्रहला प्रश्न किया- 'कृपावतार! रात में कुछ घटित हुआ?'
. 'हां, बहुत कुछ घटित हुआ....आप सब आराम से बैठे....मैं प्रात:कर्म से निवृत्त होकर सारी बात बताऊंगा।' अवधूत महाराज ने कहा।
___ महाप्रतिहार वहां पहुंच गए थे। उन्होंने सभी को नीचे के खंड में ले जाकर बिठाया। अवधूत महाराज ने एक नाई को बुला भेजा।
महाराजा का विश्वस्त नाई राजभवन के एक कमरे में रहता था।
शौचादि कर्म से निवृत्त होकर विक्रमादित्य स्नानागार में गए, साथ में उस नाई को ले गए।
अवधूत महाराज की आज्ञा पाकर नाई ने दाढ़ी को साफ कर डाला। सिर के बाल कलापूर्ण ढंग से बराबर कर दिए....चेहरा चमक उठा....नाई आश्चर्यचकित रह गया।
वीर विक्रमादित्य ३१