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थी....अग्निवैताल इस प्रकार खा रहा था, मानो दुष्काल से उठकर आ रहा हो। सब खा-पीकर वह अत्यन्त तृप्त हुआ।
विक्रमादित्य उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति को सूक्ष्मता से देख रहा था।
भोजन से तृप्त होकर अग्निवैताल उठा। इतने में ही विक्रमादित्य ने खड़े होकर कहा- 'मित्र ! कुछ तृप्ति तो मिली?'
'हां, मित्र!....तुम बहुत चालाक हो, ऐसा प्रतीत होता है।' __ 'अब तुम इस पेटी की ओर देखो। इसमें अनेक प्रकार के श्रेष्ठ इत्र पड़े हैं। इनका तुम उपयोग करो।'
अग्निवैताल ने इत्र के पात्र उठाए और अपने सिर पर, शरीर पर उन्हें उंडेल कर प्रसन्नता का अनुभव किया। उनका मन पूर्ण सन्तुष्ट हो गया।
विक्रमादित्य बोला-'अब मैं तैयार हूं।'
'अब मैं तुम्हारा क्या करूं? तुमने मुझे बहुत तृप्त किया है और मुझे मित्र बनाकर मेरा आदर-सत्कार किया है....मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूं....तुम व्यवहारनिपुण हो....अच्छा, अपना नाम तो बताओ।'
'विक्रमादित्य....'
'ओह! तब तो इस राजगद्दी के तुम वास्तविक अधिकारी हो। मैं आज से राजगद्दी पर से खिसक जाता हूं....अब तुम निर्विघ्न रूप से, पूर्ण प्रसन्नता से इस राज्य का उपयोग करो...किन्तु तुम्हें मेरा एक कार्य करना होगा।'
'बोलो!' विक्रम का मन शान्त हुआ।
'मैं प्रतिदिन मध्यरात्रि में तुम्हारे पास आऊंगा....तुम मुझे इसी प्रकार उत्तम सामग्री से तृप्त करते रहना।'
'वाह, तुमने मेरे मन की ही बात कह डाली....तुम्हारे आगमन से मुझे बहुत आनन्द आएगा।'
'अच्छा, तो मैं अब जाने की आज्ञा लेता हूं।' 'हां, मैं कल रात्रि में तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा...।'
'तुम्हारी नींद को भंग करना उचित नहीं होगा....तुम सुखपूर्वक सोते रहना, मैं तृप्त होकर चला जाऊंगा।'
विक्रमादित्य ने हंसते हुए कहा- 'मित्र! तुम्हारा आगमन इतना रोमांचक होता है कि गर्भवती स्त्रियों के गर्भ भी स्खलित हो जाते हैं, तो भला बेचारी नींद की तो बात ही क्या ?'
'मैं शांतिपूर्वक आऊंगा और तृप्त होकर चला जाऊंगा।'
‘फिर तुम्हारे साथ बात करने का आनन्द कैसे मिलेगा? तुम मेरी नींद की परवाह मत करना।' विक्रमादित्य ने कहा।
३० वीर विक्रमादित्य