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विक्रम शय्या पर से उठा, बोला- 'आओ मित्र ! मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं.... परन्तु तुम एक कायर व्यक्ति की भांति अदृश्य क्यों रह रहे हो ?'
उसी क्षण एक विराट् आकृति दीखने लगी। वह देव बोला- 'अरे ! क्या मैं कायर हूं? मैं महान् शक्ति-सम्पन्न अग्निवैताल हूं। मेरी शक्ति के समक्ष देवता भी कांपते रहते हैं ।'
'आओ, प्रिय अग्निवैताल....!'
'अरे, तुम्हारी वाणी बहुत मीठी है.... किन्तु मैं मधुर वाणी में फंसता नहीं.... मैं आया हूं तुम्हारी मौत बनकर....'
'मुझे मृत्यु का तनिक भी भय नहीं है ।'
अग्निवैताल खिलखिलाकर हंसते हुए बोला- 'तुम पागल तो नहीं हो गए हो ? इस संसार में प्राणिमात्र को मौत का भय सताता है... तुमने भगवा वस्त्र पहन रखे हैं, इसलिए मैं तुम पर दया करूंगा।'
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'मित्र ! मैं क्षत्रिय हूं। मैं किसी की दया पर जीना नहीं चाहता।' 'ओह ! ऐसे तुम नहीं समझोगे....तैयार हो जाओ.. ' कहकर अग्निवैताल ने अपना खड्ग निकाला ।
'मित्र ! तुम मेरे शब्दों पर विश्वास रखना.... ..तुम्हारे जैसे • महापुरुष और शक्तिसम्पन्न व्यक्ति के हाथों से मरना, यह गौरव का विषय है। पहले तुम इस ओर देखो....तुम्हारे लिए मैंने यह सारी सामग्री मंगवाई है.....पहले तुम तृप्त हो जाओ..... फिर हम दोनों युद्ध करेंगे।'
'मुझे तुम जाल में फंसाना चाहते हो ? क्या तुम यह मानते हो कि मैं इन सारे प्रलोभनों में आकर अपने कर्त्तव्य से पीछे हट जाऊंगा ?'
'नहीं, मित्र! मैं तुम्हें प्रलोभन नहीं देता.... भले ही मैं केवल आज एक दिन के लिए ही राजा क्यों न बना हूं, मेरा राजधर्म है कि अतिथि का मैं स्वागत करूं, भले ही फिर वह शत्रु ही क्यों न हो। मैं केवल तुम्हारा स्वागत करता हूं। पहले तुम तृप्त हो जाओ, फिर तुम मुझे मार डालना।'
'लगता है तुम पागल गुरु के शिष्य हो ! अरे, मौत का कभी स्वागत होता है ?' 'जब मौत सामने खड़ी हो, तब रोते-रोते मरने के बदले हंसते-हंसते उसका स्वागत करना क्या उचित नहीं है ? अब तुम विलम्ब मत करो और भोज्य सामग्री का भोग लगाओ।'
विक्रम के निर्भीक शब्दों से अग्निवैताल बहुत प्रभावित हुआ ।
अग्निवैताल बहुत उमंग के साथ खाद्य सामग्री को उदरस्थ करने लगा। सारी खाद्य-सामग्री श्रेष्ठ थी.... खाते-खाते कोई अघाए नहीं, ऐसी स्वादिष्ट
वीर विक्रमादित्य २६