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विक्रमादित्य ने सोचा-सारे दीपक बुझा दूं और अंधकार में जागता हुआ सो जाऊं.....दूसरे ही क्षण यह विचार बदल गया। उन्होंने सोचा, भरपूर प्रकाश में ही दुष्ट देव को भली-भांति देखा जा सकेगा। आज उनका क्षात्रतेज जगमगा उठा था। उन्होंने मन में संकल्प किया, कोई देव हो या राक्षस, मृत्यु से अधिक वह कर भी क्या सकता है ?.....उस दुष्ट के साथ अंतिम क्षण तक मुझे लड़ना है। क्षत्रिय वीर को यदि युद्ध में विजय प्राप्त होती है तो उसे इस लोक में सुख-सम्पत्ति मिलती है और मर जाने पर परलोक में सुख मिलता है।
ऐसा सोचकर विक्रमादित्य पर्यंक पर सो गए और करवटें बदलने लगे....खड्ग पास में ही पड़ा था।
दो घटिका बीत गईं।
बाहर प्रहरी आवाज दे रहे थे...विक्रमादित्य ने निश्चय किया था कि आज सोना नहीं है।
और अचानक भयंकर हुंकार सुनाई दिया....बाहर के प्रहरी कांप उठे। जबजब नया राजा सिंहासन पर बैठता और शय्या पर सोने जाता....तब-तब ऐसा हुंकार होता था। यह हुंकार कौन कर रहा है ? कहां से आ रहा है ? इसकी किसी को कोई कल्पना नहीं हो सकती थी।
अचानक होने वाले इस हुंकार को सुनकर राजभवन में होने वाले आनन्द के गीत पर तुषारापात हो गया। प्रहरी फटी आंखों से चारों ओर देखने लगे। पर कोई दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था।
विक्रम सावचेत होकर शय्या पर सो रहे थे। उनके कानों पर अट्टहास के शब्द और हुंकार प्रहार कर रहे थे। उनका बायां हाथ खड्ग की मूठ पर जमा हुआ था।
शयनकक्ष के सारे वातायन और मुख्य द्वार बन्द थे.....मात्र जालीदार झरोखे का द्वार खुला था और उससे पवन आ रहा था।
शयनकक्ष में पड़ी हुई खाद्य-सामग्री की महक सारे कक्ष को सुगंध से भर रही थी। उस मधुर सौरभ से सारा कक्ष मादक हो रहा था....किन्तु सारे राजभवन को प्रकम्पित करने वाला अट्टहास उस मादकता में खलबली मचा रहा था।
विक्रम चारों ओर देख रहे थे....अचानक एक वातायन खड़खड़ाहट शब्द करते हुए खुल गया....विक्रम ने तिरछी नजरों से उस ओर देखा। कोई दिखाई नहीं दे रहा था....विक्रम ने जान लिया कि आने वाला देव अदृश्य रूप से आया है....और तत्काल उसे भीषण अट्टहास सुनाई दिया....उस अट्टहास से पूरा शयनकक्ष कांप उठा।
२८ वीर विक्रमादित्य