SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मालिनी के रूप में मनमोहिनी ने सुरभद्र की उपस्थिति में युवराज के कंठों में माला पहनाई और युवराज ने मालिनी के गले में माला डाली.... विवाह सम्पन्न हो गया। और मनमोहिनी ने यह स्पष्ट रूप से प्रस्थापित कर दिया कि विक्रमचरित्र से स्त्रीचरित्र महान होता है। चार दिन के लिए आए हुए तीनों छह दिन तक रुके। किन्तु मनमोहिनी को अभी बहुत कुछ करना था। सबसे पहला कार्य तो यह था कि वह यहां से बिना किसी को ज्ञात हुए पलायन कर जाना चाहती थी, क्योंकि जो योजना उसने बनाई थी वह पूरी हो चुकी थी। छह दिनों के स्वामी के साथ सहवास से वह चतुर नारी समझ गई थी कि वह सगर्भा हो गई है। छठी रात में मनमोहिनी अपनी झोली से एकतेल जैसा तरल पदार्थ निकाल युवराज के मस्तक पर मलने लगी.. विक्रमचरित्र का मस्तक मनमोहिनी की गोद में ही था...उसको यह पता ही नहीं था कि मालिनी तेल नहीं मल रही है, किन्तु निद्रा दिलाने वाली कोई औषधि मल रही है। कुछ ही क्षणों में युवराज गहरी नींद में चले गए। सुरभद्र तो पहले ही अपने खंड में जा सो गया था। रात्रि के तीसरे प्रहर में मनमोहिनी ने अपनी झोली से पुरुष का वेश निकालकर धारण कर लिया। उसने अपने दूसरे वस्त्र झोली में रख दिए। युवराज ने पहली रात में उसे एक रत्नहार दिया था। उस हार को उसने सावधानी से झोली में रख लिया। फिर वह झोली को लेकर खंड के बाहर निकल गई और चंदनपुर के मार्ग पर आगे बढ़ने लगी। प्रात:काल से पूर्व वह चंदनपुर के घाट पर आ पहुंची। वहां एक नौका में बैठकर वह अवंती नगरी की ओर विदा हुई। प्रात:काल हुआ। मंत्रीपुत्र कुछ पहले जाग गया था। युवराज अभी भी गहरी नींद में थे। वे विलम्ब से उठे। मालिनी वहां नहीं थी। कुछ प्रतीक्षा के पश्चात् भी वह नहीं आयी, तब चारों ओर उसकी खोज होने लगी। मालिनी को न पाकर युवराज व्यथित हो गए। खोज हो रही थी। युवराज ने देखा कि योगिनी का वेश और कमंडलु एक कोने में पड़े हैं। युवराज बोले- 'वह अपने मूल वेश में ही गई है।' दो अश्वारोही रक्षक तत्काल चंदनपुर की ओर गए। वहां दोनों ने पूरी छानबीन की। मालिनी का कोई अता-पता नहीं लगा। युवराज को यह ज्ञात नहीं था कि मोहिनी गुप्त-रूप से अपने पितृगृह में सकुशल पहुंच गई है। वीर विक्रमादित्य ४१६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy