________________
योगिनी के एक हाथ में कमंडलु था और दूसरे हाथ में थैली थी। वह बोली'शरीर से, मन से नहीं।'
युवराज खिलखिलाकर हंस पड़े और हंसते-हंसते बोले-'तुम निर्भय हो, अन्यथा इस प्रकार अकेली कैसे आती?'
__ "ऐसे नहीं। आपके पास यदि नारी निर्भय नहीं होगी तो फिर कहां होगी?' योगिनी ने कहा।
बातों-ही-बातों में उपवन आ गया। तीनों उस उपवन में बने एक लघु भवन में गए। उसके दो खंड थे। एक खंड में योगिनी की व्यवस्था की गई और दूसरे खंड में दोनों मित्र ठहरे।
दास-दासी वहां आ गए थे। भोजन बना और तीनों यथासमय भोजन कर निवृत्त हो गए।
योगिनी के खंड में दीपमालाएं जल उठीं और तीनों अलग-अलग आसन पर वहीं बैठकर बातें करने लगे।
कुछ औपचारिक बातों के पश्चात् मंत्रीपुत्र अपने आसन से उठते हुए बोला-'मुझे प्रतीत होता है कि मेरी यहां उपस्थिति आप दोनों के मन में संकोच पैदा कर रही है। मैं बाहर जा रहा हूं।' कहकर मंत्रीपुत्र कक्ष से बाहर निकल गया।
सुरभद्र के बाहर जाते ही युवराज ने योगिनी को स्नेहभरी दृष्टि से देखते हुए पुकारा-'प्रिये!.....'
'क्या आज्ञा है?' 'क्या वास्तव में ही तुमने अपना मन मुझे समर्पित कर डाला है?' 'क्या आपके मन में कोई संशय है?' 'तो फिर इस वेश का परित्याग कर दो।' 'मैं आपके मन की भावना समझ गई....किन्तु लग्नविधि से पूर्व...?' 'ओह!' कहकर युवराज मौन हो गए।
दोनों ने गंधर्व विवाह करने का तय किया। उपवन से फूल मंगाए और मालिनी ने स्वयं दो मालाएं गूंथीं।
__ रात्रि का पहला प्रहर पूरा हो, उससे पूर्व ही मालिनी अपना वेश परिवर्तन कर बैठ गई।
मंत्रीपत्र को गंधर्व विवाह के समाचार मिले। वह अत्यन्त हर्षित हो उठा। वह वहां आया। मनमोहिनी को देखते ही उसका सिर चकराने लगा। ऐसा रूप! ऐसा तेज! ऐसी यौवन-माधुरी! ओह ! भाग्य का नजारा!
४१८ वीर विक्रमादित्य