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________________ मनमोहिनी को पुरुष-वेश में देखकर माता चौंक पड़ी, पर तत्काल उसने मोहिनी को पहचान लिया। ___ मोहिनी ने कहा- 'मां! मेरा कार्य पूरा हो गया है। आज रात को भूगर्भ मार्ग से चली जाऊंगी। मेरे श्वसुर विक्रम ने जो निशानी मुझे पहले दी थी, वह आपके पास है ही। यह रत्नहार भी आप संभालकर रखें।' कहती हुई मोहिनी ने रत्नहार मां को सौंप दिया। पिताजी भी दूकान से घर आ गए थे। मोहिनी ने संक्षेप में अपनी कहानी उन्हें सुनाई। माता-पिता दोनों हर्षप्रफुल्ल बन गए और मन-ही-मन अपनी पुत्री की बुद्धि को सराहने लगे। और रात्रि के प्रथम प्रहर के पश्चात् मनमोहिनी गुप्त मार्ग से भूगर्भ-कारागार में चली गई। ७५. विजयिनी युवराज और सुरभद्र पूर्ण निराश हो चुके थे। चार दिन और वे उस चन्द्र उपवन में ठहरे। प्रियतमा की खोज की, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी। अन्त में थककर दोनों मित्र निराशा के भार से भारी होकर नौका में आरूढ़ हुए और नौका अवंती की ओर गतिमान हई। युवराज का मन विकल हो चुका था। सिर्फ छह दिनों का यह परिचय और छह दिनों की रसभरी मस्ती....किन्तु युवराज के हृदय में यह छोटी स्मृति अंकित हो चुकी थी। नौका उन दोनों को लेकर अवंती के राजघाट पर पहुंची। सुरभद्र अपने घर गया और युवराज राजभवन में आए। दिन बीतने लगे। मनमोहिनी के गर्भ का चौथा महीना चल रहा था। वह अत्यन्त प्रसन्न और स्वस्थ थी। बीच में एक बार महाराजा वीर विक्रम भी वहां आए थे और वातायन की जाली से उन्होंने कहा था- 'पुत्री ! तुम यदि अपनी पराजय स्वीकार कर लो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूं। मुझे तुम्हारे प्रति करुणा आती है।' 'महाराज! मैं अपने निश्चय पर अटल हूं। विजय के प्रकाश में अठखेलियां करने वाला मेरा हृदय किसी से करुणा की भीख नहीं चाहता।' वीर विक्रम हंसे और चले गए। मनमोहिनी भी मुस्करा दी। ४२० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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