________________
७४. मालिनी
युवराज विक्रमचरित्र अपना हृदय योगिनी के चरण-कमलों में अर्पित कर सुदंत सेठ के भवन में आ पहुंचे। सेठ-सेठानी दोनों युवराजश्री की प्रतीक्षा में खड़े थे । युवराज को देखते हुए सेठ ने कहा- 'मुझे चिन्ता हो रही थी कि....'
'किस बात की ?'
'मेरे घर में आपका मन....'
|
बीच में ही युवराज बोले- 'नहीं, सेठजी ! मेरा मन तो प्रसन्न ही हुआ है दिन में नींद लेने की आदत न होने के कारण मैं अपने एक मित्र से मिलने चला गया। आप अन्यथा न सोचें ।'
जलपान कर युवराज ऊपर के कक्ष में गए। मंत्रीपुत्र अभी सो रहा था। युवराज अपनी शय्या पर करवटें बदल रहे थे। उनका मन योगिनीमय हो गया था, योगिनी योग्य साथी की टोह में निकली है और उसने मुझे ही पसन्द किया है। यह मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है। ऐसा नारीरत्न देवताओं को भी दुर्लभ है। कल यह मेरे साथ आएगी ही। चंदनपुर के रमणीय वनप्रदेश में संध्या से पूर्व पहुंच जाएंगे। वहां राज्य का उपवन है। वहां एक तीन मंजिला भवन है। वहां निवास योग्य सारी साधन-सामग्री है। वहां से आधा कोस की दूरी पर चंदनपुर नाम का एक छोटा नगर है। वहां से खाद्य सामग्री प्राप्त हो सकेगी। यदि योगिनी प्रसन्न हो जाएगी तो वहां चार-पांच दिन जीवन के वसंत की बहार लूटी जा सकेगी।
ऐसी मधुर कल्पनाओं में खोये हुए युवराज मंत्रीपुत्र की आवाज से तत्काल उठ बैठे।
दोनों मित्र बातचीत करने लगे ।
सायंकालीन भोजन से निवृत्त होकर दोनों मित्र अपने-अपने अश्वों पर आरूढ़ होकर वहां से विदा हुए।
जाते समय युवराज ने उस झरोखे की ओर तिरछी दृष्टि से देखा। वहां योगिनी नहीं थी । झरोखा सूना-सूना था। सूने झरोखे को देखकर विक्रमचरित्र के हृदय से एक नि:श्वास निकला ।
राजभवन में जाने के पश्चात् देवकुमार ने अपने मित्र मंत्रीपुत्र से कहा'मुझे तुम्हारे साथ एक महत्त्वपूर्ण बात करनी है। मैं पहले पिताजी से मिल आता हूं, तब तक यहीं बैठे रहना । '
देवकुमार महाराज विक्रम के पास गया और नमन कर खड़ा रह गया। वीर विक्रम ने सेठ सुदंत के घर की सारी बात पूछी। युवराज ने कहा- 'सेठ बहुत
वीर विक्रमादित्य ४१३
-