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शालीन हैं। हमारा आतिथ्य बहुत किया और उन्होंने आते समय मुझे बहुमूल्य नीलममणि की माला भेटस्वरूप दी।'
कुछ अन्यान्य औपचारिक बातचीत के पश्चात् देवकुमार बोला-'पिताश्री! आप आज्ञा दें तो मैं पांच-सात दिनों का एक लघु प्रवास करना चाहता हूं।'
'तुम्हें किस ओर जाना है?' "शिप्रा नदी में, नौका-विहार के लिए जाना चाहता हूं।' 'अच्छा। कब जाना है?' 'कल प्रात:काल।' दो क्षण सोचकर विक्रम बोले-'तुम्हारे साथ कौन जाएगा?' 'मेरे दो मित्र साथ चलेंगे।'
'अच्छा। इस ऋतु में जल-विहार बहुत सुखप्रद होता है। मैं अजय को कह दूंगा । हंस-नौका में ही जाना। साथ में रक्षकों को ले लेना।'
"जी।' कहकर देवकुमार ने मस्तक नमाया। वह अपने मित्र के पास आकर बोला-'कल हमें प्रवास पर चलना है।' 'क्यों?'
"मित्र! संसार में कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं होता। मैंने अभी तक तुम्हें एक मधुर बात नहीं बताई। इस कक्ष का द्वार बंद तो कर दो।'
आश्चर्यभरी दृष्टि से युवराज की ओर देखते-देखते मंत्रीपुत्र खड़ा हुआ और 'मधुर बात कैसी? प्रवास क्यों?' इन प्रश्नों को मन-ही-मन घोलता हुआ द्वार के पास पहुंचा। उसे बंद कर आसन पर बैठते हुए बोला-'मुझे लगता है कि यह सारा सुदंत सेठ के अन्न का प्रभाव है।'
'तुम्हारा अनुमान सही है।' कहकर युवराज ने संक्षेप में योगिनी को देखने, योगिनी से मिलने, योगिनी के साथ हुई चर्चा और कल योगिनी को साथ लेकर चंदनपुर के वनप्रदेश में जाने की सारी बात बताई।
पूरी बात सुनने के पश्चात् मंत्रीपुत्र बोला-'युवराजश्री! सारी बात सुनकर मेरा आश्चर्य शतगुणित हो गया है। नारी की परछाईं से भी दूर रहने वाले आप इस प्रकार तैयार कैसे हो गए ?'
___मित्र! जब कल तुम योगिनी को साक्षात् देख लोगे तब इस प्रश्न का उत्तर सहज रूपसे मिल जाएगा। पुरुष कभी भी प्रकृति की परछाईं से दूर रह नहीं सकता। इस योगिनी के रूप, स्वभाव और यौवन का वर्णन करने की शक्ति मुझमें नहीं है, इसलिए लाचार बन गया हूं।'
'आपने एक बात पर विचार किया है ?'
४१४ वीर विक्रमादित्य