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________________ मन में एक अपूर्व भावधारा प्रकट हुई। पास में सुदंत सेठ के यहां भोजन करने बैठा, पर भोजन कर नहीं सका, क्योंकि आपसे मिलने के लिए मेरा मन छटपटा रहा था । अब नि:संकोच होकर आप मुझे बताएं कि वह भाग्यशाली पुरुष कौन हैं ?' 'मैंने उसको आज ही देखा है । ' 'आज ही ?' 'हां।' कहती हुई योगिनी की दृष्टि नीचे झुक गई । मनमोहिनी समझ गई कि उसने युवराज को पूर्णरूपेण प्रभावित कर लिया है। 'वह व्यक्ति कौन है ?' युवराज ने पूछा । 'मानेंगे...?’ 'अवश्य ।' — 'आप... 1 'हूं?' कहता हुआ युवराज आसन से उठ खड़ा हुआ और भावावेश में योगिनी के निकट चला गया। उसने योगिनी के दोनों हाथ पकड़ लिये । योगिनी ने तत्काल हाथ छुड़ाते हुए कहा - 'कुमारश्री ! मुझे अपने वेश की मर्यादा रखनी चाहिए तथा हमें एक-दूसरे को समझने का प्रयास भी कर लेना चाहिए।' 'मैं तैयार हूं।' युवराज ने कहा । 'मैं तो इस प्रदेश से अपरिचित हूं। हम ऐसे किसी नीरव, शान्त और एकांत स्थल में चलें, जहां बैठकर निश्चिन्तता से बातें कर एक-दूसरे को समझने का प्रयत्न करें। आप आएंगे ?' 'हां । आज सांझ को ?' 'नहीं, कल प्रात: काल । ' योगिनी ने कहा । दो क्षण सोचकर युवराज बोला- 'देवी! आपने शिप्रा नदी तो देखी है ?' 'हां......' 'तो कल सूर्योदय के बाद उस नदी के अंतिम घाट पर आप आ जाना। मैं वहां अपनी नौका लेकर आऊंगा। वहां से हम बीस कोस दूर चंदनपुर के वनप्रदेश में चलेंगे।' ' किन्तु आप मुझे बहुमान से.....' बीच में ही युवराज ने कहा- 'जब तक आवेश है, तब तक. दोनों हंस पड़े । ४१२ वीर विक्रमादित्य '
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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