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________________ करेंगे। यदि इस अवधि में तुमने किसी को पसन्द नहीं किया तो फिर हम अपनी इच्छानुसार तुम्हारा विवाह कर देंगे। मैंने यह बात मान ली। यहां आए मुझे आठदस दिन हुए हैं। अब मेरे लिए केवल कुछ ही दिन शेष रहे हैं। मेरे माता-पिता भी एकाध सप्ताह में आ जाएंगे।' 'ओह! क्या आपको अभी तक सुयोग्य साथी नहीं मिला?' - 'नहीं, यदि मिला होता तो मैं यहां क्यों आती?' कहकर योगिनी मुस्कराने लगी। 'आपको कष्ट न हो तो एक प्रश्न करूं?' 'हां, प्रसन्नता से.....' 'आपने किस प्रकार के जीवन-साथी की कल्पना की है? 'मेरी कल्पना का जीवन-साथी अस्वाभाविक या अकल्पनीय नहीं है। जिसके प्राणों में प्रेम, ममता और मस्ती हो, जिसके संस्कार श्रेष्ठ हों, जो ईमानदारीपूर्वक सहवास निभा सके ऐसा दृढ़ हो। अंतिम बात है कि वह मेरे मन को भा जाए तो....।' 'ओह! क्या इस अवंती नगरी में आपको ऐसा व्यक्ति नहीं मिला?' "मिला है....' युवराज चौंका। सोचा, सारा खेल ही न बिगड़ जाए। उसने पूछ लिया-'कौन?' 'यह नहीं कहूंगी', लज्जा की लालिमा मानो योगिनी के नयनों में और मुख पर छलकने लगी। 'देवी! आपने इतना बता डाला, फिर थोड़े के लिए इसे क्यों अपूर्ण रखती हैं ? मैंने आपको जब से देखा है, तब से.....' 'कुतूहल जागृत हुआ था?' 'नहीं, देवी! मात्र कुतूहल ही नहीं।' 'तो?' 'मैं शब्दों से अपना मनोभाव व्यक्त नहीं कर सकता।' 'मैं समझ गई....। 'क्या?' 'रूप और यौवन के प्रति पुरुषमात्र को आकर्षण होता ही है। आकर्षण को कोई कुतूहल मानता है, कोई प्रेम मानता है और कोई मोह मानता है।' 'नहीं, देवी! ऐसी बात नहीं है। मैं नौजवान हूं, यह सच है, किन्तु आज तक किसी नारी के सम्पर्क में नहीं आया हूं। आज ही मैंने आपको देखा और मेरे वीर विक्रमादित्य ४११
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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