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________________ 'नहीं-नहीं, मुझे दिन में सोने की आदत नहीं है। मैंने सोचा, मित्र से मिल आऊं।' 'आप कहें तो आपके मित्र को यहीं बुला भेजूं?' 'नहीं, फिर कभी मिल लूंगा'-कहकर युवराज चले गए। ज्ञान, संस्कार और बुद्धि अपूर्व होती है, किन्तु जवानी अपना काम करती रहती है। पहले कुतूहल उत्पन्न होता है, फिर अधीरता उभरती है। युवराज देवकुमार सभी की दृष्टि में सवाईविक्रम अथवा विक्रमचरित्र के नाम से पहचाना जाता, पर अन्तत: वह था तो एक नौजवान ही। जिसको देखते ही मन में खलबली मच जाए, ऐसी सुन्दरी को देखकर कुतूहल होना स्वाभाविक है और उसके प्रति एक लिप्सा की जागृति भी अस्वाभाविक नहीं मानी जा सकती। युवराज पुन: मुख्य द्वार से बाहर निकला। उस मकान के निकट गया.... अरे, यही भवन! यही वातायन ! किन्तु योगिनी कहां होगी? क्या भोजन कर रही है या विश्राम कर रही है? युवराज दो क्षणों तक वातायन की ओर देखता रहा। वहां एक ओर परिचारिका खड़ी थी। युवराज ने पूछा- 'योगिनी देवी यहीं रहती हैं? 'हां, श्रीमान्!' 'ये कहां से आयी हैं?' 'रमताराम हैं। पांच-दस दिन के लिए यहां आयी हैं। इनके भक्तों ने इन्हें खाली भवन में रखा है।' दासी ने कहा। 'यदि उनसे मिलना हो तो?' 'प्रसन्नता से। आपका शुभनाम?' 'मैं राजा वीर विक्रम का युवराज हूं।' 'क्षमा करें, युवराजश्री! आप भीतर पधारें', कहकर दासी भीतर चली गई। भवन स्वच्छ था....कहीं कोई गंदगी या ऊबड़-खाबड़पन नहीं था। युवराज को एक कक्ष में बिठाती हुई दासी बोली-'आप कुछ देर यहां विराजें, मैं योगिनी देवी की आज्ञा....' बीच में ही युवराज बोले- 'खुशी से.......' योगिनी के वेश में मनमोहिनी यह संवाद द्वार के पीछे खड़ी-खड़ी सुन रही थी। संवाद पूरा होते ही तत्काल अपने कक्ष में जाकर मृगचर्म पर बैठ गई। दासी के पूछने पर वह बोली- 'जा, युवराज को यहां भेज दे।' दासी तत्काल मुड़ी। वीर विक्रमादित्य ४०६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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