________________
'किन्तु, पिताश्री!'
'पुत्र! मैंने जो कदम उठाया है, वह सोच-विचार कर उठाया है। तुम निश्चिन्त रहो। तुम कल ससुराल चले जाना।'
दिन के दूसरे प्रहर से पूर्व ही राजसभा की कार्यवाही सम्पन्न हो गई। युवराज अपने मित्र मंत्री-पुत्र को साथ लेकर घोड़े पर आरूढ़ होकर वणिकबाड़ी में सेठ सुदंत के घर की ओर चल पड़े। चलते-चलते उनकी दृष्टि एक मकान के वातायन में खड़ी नवयौवना पर पड़ी। उसको देखते ही युवराज के आश्चर्य का पार नहीं रहा। विधाता ने अपने विश्राम के क्षणों में इस नवयौवना को निर्मित किया हो, ऐसा लग रहा था। उसके तेजस्वी नयन स्पष्ट दीख रहे थे। उसका रूप-लावण्य देवताओं को भी स्वर्ग से भूमि पर ले आने वाला था।
मात्र दो-चार क्षण..... । योगिनी के नयनों से देवकुमार के नयन टकरा गए। योगिनी उसी क्षण लौट गई। उसे जो देखना था, वह दृष्टिगत हो चुका था।
मंत्री-पुत्र का अश्व आगे बढ़ गया था और युवराजश्री का अश्व वहीं रुक गया था। युवराजश्री के मन में प्रश्न उभरा-यह भवन किसका...?
सुदंत सेठ का मकान आ गया। सेठ द्वार पर ही खड़े थे। उन्होंने आदर सहित युवराजश्री का स्वागत किया। सेठानी ने दामाद का वर्धापन किया और एक रत्नमाला उनके कंठ में आरोपित की। ___ मंत्री-पुत्र को आश्चर्य हुआ कि सुदंत सेठ के यहां यह स्वागत कैसा?
सुदंत सेठ दोनों को एक सुसज्जित कक्ष में ले गया। वहां भोजन की व्यवस्था थी। सभी भोजन करने बैठे।
किन्तु मदभरे नयन जब टकराते हैं तब भूख, नींद और विवेक-ये सब पलायन कर जाते हैं।
युवराज की भूख विदा हो गई थी। फिर भी लोकलाज से कुछ खाया। मंत्रीपुत्र भी युवराज की अल्प भूख को देखकर हैरान रह गया। युवराज और मंत्रीपुत्र-दोनों भोजन करने के बाद विश्राम करने लगे।
दोनों शय्या पर पड़े-पड़े बातचीत करते रहे। कुछ ही समय पश्चात् मन्त्रीपुत्र निद्राधीन हो गए, किन्तु युवराज करवटें बदलने लगे। उनके नयनों में योगिनी का चित्र उभर-उभरकर आ रहा था। ___मंत्री-पुत्र को निद्राधीन देखकर युवराज शय्या से नीचे उतरे और खंड से बाहर आए। उनका मन यह जानने के लिए अत्यधिक आतुर हो रहा था कि योगिनी कौन है? उन्होंने एक बार योगिनी के मकान के पास जाने की सोची। वे सोपान श्रेणी से नीचे आए। सेठानी ने उन्हें देख लिया। उसने पूछा-'युवराजश्री! क्या कुछ चाहिए?
४०८ वीर विक्रमादित्य