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________________ उनचालीसवां दिन उगा और जहां मनमोहिनी का पलंग बिछा पड़ा था, वहां जमीन के नीचे ठक्-ठक् की आवाज होने लगी। रात का दूसरा प्रहर चल रहा था। मनमोहिनी सब समझ गई थी। उसने पलंग को एक ओर खिसकाया और दो घटिका के पश्चात् वहां एक छेद दीख पड़ा। थोड़े समय पश्चात् स्वयं देवचन्द्र उस छेद में से पहले बाहर निकला और मनमोहिनी की ओर देखकर बोला-'बेटी! तेरे लिए यह विवर करना पड़ा है।' मनमोहिनी देवचन्द्र के चरणों में नत होकर बोली- 'मुझे आप पर विश्वास था।' देवचन्द्र ने उस विवर पर ढक्कन आदि का सारा कार्य सम्पन्न कर दिया। उस समय रात्रि का तीसरा प्रहर पूरा हो रहा था। देवचन्द्र बोला-'मनु! अब दो दिन शेष रहे हैं। दो दिनों में सोपान तैयार हो जाएंगे। और मार्ग भी अच्छा हो जाएगा। सारा कार्य पूरा हो जाएगां अब केवल दो दिनों में तेरी मुक्ति.....' ७३. एक कुतूहल दो दिन पश्चात्....। आधी रात बीत रही थी। उस समय उस सुरंग के ढक्कन के खुलने की आवाज आयी। देवचन्द्र ने कहा- 'बेटी! पलंग को थोड़ा खिसका ला।' मनमोहिनी जागती ही शय्या पर पड़ी थी। उसने आवाज सुनते ही पलंग खींच लिया। देवचन्द्र बोला- 'बेटी! अब मेरे साथ चल।' "ऐसे नहीं! कल रात आप मेरे घर की प्रिय दासी सुभद्रा को भेज दें। वह मेरे स्थान पर यहां रहेगी और फिर मैं...।' 'ओह! समझ गया। किन्तु उस खिड़की से यदि दासी ने सुभद्रा को पहचान लिया तो.....?' 'नहीं पहचान सकेगी। मैं कल सारी व्यवस्था कर लूंगी।' मनमोहिनी ने कहा। देवचन्द्र के हाथ में दीपक था। वह नीचे चला गया। दूसरे दिन प्रात:काल स्वर्ण का एक कंगन दासी सुमित्रा को देती हुई मनमोहिनी बोली- 'सुमित्रा ! मैं कल से धर्म की आराधना प्रारम्भ करने वाली हूं। मैं मौन रहूंगी। किसी से बोलूंगी नहीं। भोजन, जल आदि मौन-भाव से ले लूंगी। किन्तु मेरा यह व्रत किसी को ज्ञात न होने पाए, अन्यथा मेरी आराधना में विघ्न उपस्थित हो जाएगा।' 'आपका मौनव्रत कब तक चलेगा?' सुमित्रा दासी ने पूछा। वीर विक्रमादित्य ४०५
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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