________________
'तो मुझे एक बड़ा पान ला देना। मैं उसे बीड़ा बनाकर तुम्हें सौंपूंगी।' दूसरे दिन सुमित्रा मनमोहिनी से पान लेकर तत्काल चल पड़ी और सेठ सुदंत के भवन पर पहुंच गई। सेठ उस समय दूकान जाने की तैयारी में थे। उसने सेठजी को प्रणाम किया और कहा - 'प्रतिवर्ष के नियमानुसार आपकी पुत्री ने पान का यह बीड़ा भेजा है । '
चतुर वणिक् समझ गया। उसने पान का बीड़ा ले लिया और मनमोहिनी का कुशलक्षेम पूछकर सुमित्रा को विदा किया।
सेठ अपने खंड में गया, सेठानी भी वहां आ गई। सुदंत सेठ ने पान का बीड़ा खोला। सेठानी बोली- 'कैसा पान ? कैसा जन्मदिन ? मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है । '
सेठ बोला- ‘यदि तुझे सब कुछ समझ में आने लगे तो तुझे दूकान पर न बिठा दूं? आज पांच महीनों बाद पुत्री ने पहली बार कुछ संदेश भेजा है। यह गुप्त होना चाहिए ।' सेठ ने पान का बीड़ा खोला। उसमें से एक ताड़पत्र निकाला। सेठ ने उसको पढ़ना प्रारंभ किया....
" पिताश्री ! जिस रात मैं आपसे विदा लेकर राजभवन में गई, उसी रात से महाराजा ने मुझे शिप्रा नदी के किनारे बने हुए एक भूगृह में रखा है। यहां मुझे कोई कष्ट नहीं है, पर जो कार्य मुझे करना है वह बाहर निकले बिना नहीं कर सकती। इसलिए मैं चाहती हूं कि आप किसी भी शिल्पी से मिलकर इस भूगृह से अपने भवन तक एक सुरंग बनवा दें तो मैं आ-जा सकती हूं। फिर मुझे जो करना है, वह करूंगी। आप थोड़े में अधिक समझ लें ।'
पत्र पढ़कर सेठ गंभीर विचार में पड़ गए। उन्होंने ताड़पत्र के टुकड़े-टुकड़े कर डाले ।
सेठ सुरंग के निर्माण के विषय में सोचने लगे। अचानक उन्हें अपने बालमित्र महान् शिल्पी देवचन्द्र की स्मृति हो आयी और वे तत्काल रथ में बैठकर उसके घर पहुंच गये । एकान्त में दोनों ने विचार-विमर्श किया। देवचन्द्र बोला'सेठजी ! इस कारागार को मेरे पिताश्री ने बनाया है। क्या उसका बेटा उससे निकलने का मार्ग नहीं बना सकता ?'
'देखो, यह बात किसी से मत कहना। तेरी भाभी से भी नहीं।' सेठ ने कहा ।
कुछ दिन बीते । देवचन्द्र ने दोनों स्थानों का सूक्ष्म निरीक्षण किया। सारी जानकारी प्राप्त कर उसने सुरंग का कार्य प्रारम्भ कर दिया। दस दिन बीते । बीस-तीस दिन बीत गए ।
४०४ वीर विक्रमादित्य